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________________ २५६ : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन अभिग्रहपूर्वक वस्त्र११, पात्र१९७, शय्या१९८ के सन्दर्भ में भी वृत्तिपरिसंख्यान तप का विवेचन उपलब्ध होता है। (४) रस-परित्याग : ___ दूध, दही, घी आदि रसों को प्रणीत पान भोजन कहते हैं। आचारांग के अनुसार रस-परित्याग का अर्थ है-प्रणीत रसयुक्त आहारपानी का त्याग करना । इस तप से विषयाग्नि उद्दीप्त नहीं होती और ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने में बड़ी सहायता मिलती है। इसीलिए कहा है कि जो मात्रा से अधिक और प्रणीत रस प्रकाम भोजन नहीं करता है वही सच्चा निर्ग्रन्थ है । प्रणीत रस युक्त और प्रमाण से अधिक भोजन करने वाला निग्रन्थ ब्रह्मचर्य का विघातक और धर्म से भ्रष्ट होता है अतः श्रमण-श्रमणी को स्निग्ध भोजन नहीं करना चाहिए १९ अपितु 'अविणिव्वलासए'२०० निर्बल (निःसार ) भोजन करना चाहिए क्योंकि निःसार या शक्तिहीन भोजन करने से शारीरिक शक्ति घट जाती है। अतएव आचारांग में काम-वासना को शान्त करने का पहला उपाय निर्बल आहार बतलाया गया है। आचारांग में 'पंतं लहं सेवन्ति वीरा समत्तदसिणो२०१५ सूत्र के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वीर समत्वदर्शी मुनि सरस और स्वादिष्ट भोजन नहीं करते हैं अपितु वे प्रान्त ( नीरस ) और रूक्ष-भोजी होते हैं। इस प्रकार इस तप का मुख्य प्रयोजन स्वाद-विजय है । (५) काय-क्लेश तपः काय-क्लेश बाह्य तपाराधना का पांचवां प्रकार है । शीत-ताप, वर्षा आदि कष्टों को विशेष रूप से सहने का अभ्यास करना तथा वीरासन, गोदुहासन आदि विभिन्न आसनों के द्वारा शरीर को स्थिर करना कायक्लेश तप है। शरीरगत चैतन्य केन्द्रों को जगाने के लिए आसनों का बड़ा महत्व है तथा ब्रह्मचर्य के पालन में भी बड़ी सहायता मिलती अतः आचारांग में कहा है ‘अवि उड्ढंठाणं ठाइज्जा'२०२ मुनि ऊर्ध्वस्थान ( घुटनों को ऊँचा और सिर को नीचा ) कर स्थिर रहे या कायोत्सर्ग करे । प्रस्तुत सूत्र मुख्यतया सर्वांगासन, वृक्षासन, शीर्षासन आदि का बोधक है२० । भगवतीसूत्र में इस मुद्रा को 'उड्ढं जाणू अहो सिरे' के रूप में बताया है२०४ । हठयोग प्रदीपिका में भी 'अधः शिरश्चोर्ध्वपादः' का प्रयोग आया है। इस आसन से काम-केन्द्र शान्त होते हैं और परिणामतः कामवासना भी शान्त हो जाती है। इसी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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