SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमणाचार : २३७ अशनादि चतुर्विध आहार न ग्रहण करे। ३५ जैन परिभाषा में मकान मालिक को शय्यातर कहा जाता है। 'शय्यातर' शब्द शय्या + तर दो शब्दों के योग से बना है। 'शय्या' का अर्थ है मकान, उपाश्रय या स्थान और 'तर' का अर्थ है तैरने वाला। अतः शय्यातर का तात्पर्य है कि साधु-साध्वी को ठहरने के लिए स्थान देकर संसार से तैरने वाला। ठहरने के अयोग्य उपाश्रय : गृहस्थ, जल और अग्नि से युक्त मकान या उपाश्रय में प्रज्ञावान साधु-साध्वी को प्रवेश और निष्क्रमण नहीं करना चाहिए, धर्म-चिन्तन के लिए भी वह स्थान उपयुक्त नहीं है । १34 जिस उपाश्रय या मकान में गृहपति और गृहपत्नियाँ, दास-दासियाँ परस्पर कोसती हैं, मारपीट करती हैं, एक दूसरे के शरीर की तेल, घी, मक्खन आदि से मालिश करती हैं, जल एवं चूर्ण आदि से साफ करती हैं, मैल उतारती हैं, उबटन लगाती हैं, पानी उछालती हैं, स्नान कराती हैं, सिंचन करती हैं, ऐसे स्थान में मुनि को नहीं ठहरना चाहिए । ३० बृहत्कल्प में भी यही कहा है । १३८ __जिस उपाश्रय का प्रवेश मार्ग गृहस्थ के घर में से होकर हो, तथा उसके अनेक दरवाजे हों तो ऐसे उपाश्रय में साधु को ठहरना एवं स्वाध्यायादि करना उचित नहीं है ।१३९ बृहल्कल्पसूत्र के अनुसार ऐसे उपाश्रय में साध्वियाँ ठहर सकती हैं । १४० । जिस मकान में गृहपति-गृहपत्नियाँ नग्नावस्था में खड़ी हों और मैथुन सम्बन्धी चर्चा करती हैं अथवा कोई रहस्यमय कार्य के लिए गुप्त मंत्रणा कर रही हैं तो बुद्धिमान् साधु को ऐसे उपाश्रय में ठहरना योग्य नहीं है और न वहाँ स्वाध्याय, कायोत्सर्गादि ही करना चाहिए।१४१ ___ चित्रों से आकीर्ण उपाश्रय में भी साधु का ठहरना और स्वाध्याय आदि करना निषिद्ध है । १४२ योग्य-अयोग्य ( शय्या-संस्तारक) (शयन करने का पट्टा, फलक आदि ) जो अण्डे, मकड़ी, जालों और जीव जन्तुओं से युक्त हो, भारी हो, गृहस्थ जिसे देकर वापस लेना नहीं चाहता हो, ढीला (शिथिल) हो तो ऐसा संस्तारक या पट्टा, फलक आदि मिलने पर भी मुनि स्वीकार न करे। इन चारों कारणों या इनमें से कोई एक कारण भी उपस्थित हो तो ग्रहण न करे।। ___ जीव-जन्तुओं से रहित, हल्का, दृढ़-बन्धन युक्त और जिसे गृहस्थ ने पुनः लेना स्वीकार कर लिया है, वही तख्ता, पट्टा या संस्तारक मुनि ग्रहण कर सकता है।४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy