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________________ २०४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन जीव को परिताप, संक्लेश या पीड़ा नहीं पहुंचाता है, तथा पृथ्वी की भाँति सब प्रकार के परीषहों को समभावपूर्वक सहता है, वह महामुनि 'श्रमण' या श्रेष्ठ श्रमण कहा जाता है। इस प्रकार मुक्तिमार्ग की साधना करने वाला श्रमण सम्यग्दर्शन व ज्ञान के साथ ही सम्यक् आचार-साधना में स्वयं को तपाकर भवबन्धन से मुक्त हो जाता है । आचारांग में कहा है तहा विमुक्करस्सपरिन्नचारिणो । धिइमओ दुक्ख खमस्स भिक्खुणो।। विसुज्झई जंसि मलं पुरे कडं। समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥ जिस प्रकार अग्नि चाँदी के मैल को जलाकर उसे परिशुद्ध कर देती है उसी प्रकार ज्ञानपूर्वक आचरण करने वाला, धैर्यवान और कष्टसहिष्णु भिक्षु सर्वसंगों से रहित होकर अपनी साधना के द्वारा आत्मा पर लगे हुए पूर्वबद्ध कर्म-मल को दूर कर उसे परिशुद्ध या अनावरण बना लेता है। तात्पर्य यह है कि वह श्रमण तप, त्याग, संयम, परीषह आदि को अग्नि में तपकर अर्थात् स्वयं के कठोर परिश्रम से आत्मा को मुक्त कर 'श्रमण' नाम को सार्थक कर लेता है। वास्तव में, 'श्रमण' की आचारसाधना का लक्ष्य कर्म-पुद्गलों को आत्म तत्त्व से पृथक् करना और शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि करना ही है । श्रमण के समग्र आचार को सुव्यवस्थित रूप देने हेतु उसके दो भाग किये जा सकते हैं-(१) सामान्य श्रमणाचार से सम्बन्धित विचार (२) और विशेष श्रमणाचार से सम्बन्धित विचार । वैसे सामान्य श्रमणाचार और विशेष श्रमणाचार दोनों एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। दोनों का आत्मशुद्धि हेतु ही प्रतिपादन किया गया है और दोनों का उद्देश्य मुक्ति-लाभ ही है । इस तरह दोनों एक दूसरे में अनुस्यूत हैं । सामान्य श्रमणाचार: जो आचार नियम श्रमण-श्रमणी के जीवन में नित्य प्रति आचरणीय होते हैं वह सामान्य श्रमणाचार है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से सामान्य श्रमणाचार के अन्तर्गत निम्नोक्त पहलुओं पर प्रकाश डाला जायेगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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