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________________ पंचमहावतों का नैतिक दर्शन : १९१ लिए मुग्ध भी करती हैं, पर मैं तो पुजारी हूँ सत्यरूपी परमेश्वर का । मेरी दृष्टि में वही एकमात्र सत्य है, दूसरा सब कुछ मिथ्या है।' आचारांग की भाँति ही वे भी अन्य शब्दों में दुहराते हैं कि 'जो सत्य को जानता है, मन से, वचन से और काया से सत्य का आचरण करता है, वह परमेश्वर को पहचानता है। इससे वह त्रिकालदर्शी हो जाता है।' यही नहीं, वरन् सत्य को परमेश्वर की श्रेणी में अधिष्ठित करने के प्रयास में वे यहाँ तक कहते हैं 'परमेश्वर सत्य है यह कहने के बजाय 'सत्य' ही परमेश्वर है यह कहना अधिक उपयुक्त है।११७ इस प्रकार आचारांग के अनुसार सत्यव्रत का पालन अहिंसक जीवन के लिए अति आवश्यक है। शतपथ'१६ ब्राह्मण, तैत्तरीय आरण्यक, नारायणोपनिषद् १९ एवं वाल्मीकि रामायण १२० में भी सत्य की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है। अस्तेयवत : पाँच महाव्रतों में अस्तेय भी एक व्रत है। अहिंसा और सत्यव्रत की रक्षा के लिए निर्ग्रन्थ जीवन में इस व्रत का पालन भी अनिवार्य है क्योंकि चौर्य कर्म करने वाला हिंसक के साथ-साथ असत्यभाषी भी होता है । जो व्यक्ति किसी भी चीज को बिना पूछे ले लेता है तो निःसन्देह वह उसे व्यथा पहुँचाता है। धन मनुष्यों का बाह्य प्राण माना गया है। अतः उसका अपहरण करने से उनका प्राण-घात हो जाता है । यही कारण है कि चोरी या अदत्तादान में हिंसा का दोष भी स्पष्ट है । इस सन्दर्भ में, आचारांग कहता है कि जलकाय की हिंसा चोरी भी है ।१२१ इससे स्पष्ट विदित होता है कि किसी भी जीव की हिंसा सिर्फ हिंसा ही नहीं है अपितु हिंसा के साथ-साथ चोरी भी है। अहिंसा के विषय में यह बड़ा तार्किक एवं सूक्ष्म विवेचन है । इसी तरह, चौर्य कर्म करने वाला असत्य भाषण से भी नहीं बच सकता है। अतएव हिंसा और असत्य की जननी चौर्य वृत्ति निर्ग्रन्थ के लिए सर्वथा त्याज्य मानी गई है। इसी अभिप्राय से अहिंसा और सत्यव्रत के पश्चात् इसे तृतीय स्थान दिया गया है । आचारांग में कहा है कि निर्ग्रन्थ साधक कृत, कारित, अनुमोदित तथा मन-वचन और काया से चौर्य कर्म से अपनी आत्मा को सर्वथा विरत रखता है। संसार की कोई भी वस्तु, चाहे वह गाँव में हो, नगर में हो या अरण्य में हो, स्वल्प हो या अधिक, सजीव हो या निर्जीव, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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