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________________ १७० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन वह किसी भी प्राणी को हिंसा करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता। वस्तुतः जो हिंसा नहीं करता, वही व्रती है और जो व्रती है, वही सच्चा अनगार कहलाता है। ऐसा जाग्रत, वैर एवं भय से रहित उपरत, संयमी, वीर कहा जाता है । वह सबका मित्र होता है । इस प्रकार वीरता एवं मैत्रीपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाला साधक अन्ततः सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है। उसमें यह भी कहा गया है कि आगमानुसार आचरण करने वाला श्रद्धावान मेधावी साधक षटकायरूप लोक को जानकर अभय हो जाता है अर्थात् वह न तो स्वयं किसी से भयभीत होता है और न किसी को भयभीत करता है। इसके विपरीत आरम्भी मनुष्य सदा भयभीत रहता है ।'' अतः ज्ञानियों के ज्ञान का सार यही है कि किसी के हनन की इच्छा मत करो।१२ इस प्रकार आचारसंग में स्थान-स्थान पर अहिंसा का स्वर मुखरित है। विभिन्न धर्मो में अहिंसा को अवधारणा : आचारांग के सन्दर्भ में हिंसा-अहिंसा के स्वरूप को व्याख्या करने के पूर्व हमें विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में प्रतिपादित अहिंसा के महत्त्व को भी संक्षेप में समझ लेना उचित होगा। भगवान बुद्ध कहते हैं कि दण्ड और मृत्यु सबके लिए कष्टकर होते हैं । अतः सबको अपने समान समझकर किसी की हिंसा मत करो। सबको अपना जीवन प्रिय है, सभी सुखेच्छु हैं । ऐसा समझकर जो दूसरों को कष्ट नहीं पहुंचाता है, वह सुखाभिलाषो व्यक्ति अगले जन्म में सुख पाता है तथा जैसा मैं हूँ, वैसे ये हैं, इस प्रकार सभी को आत्मवत् समझकर किसी का घात नहीं करना चाहिए और न दूसरों से करवाना चाहिए।१४ जो व्यक्ति अहिंसामय संयमित जीवनयापन करता है, उसे अच्युत पद को प्राप्ति होती है। वहाँ पहुँचकर वह कभी दुःखी नहीं होता ।५ वैदिक धर्म में भी उत्तरोत्तर काल में जैन एवं बौद्ध परम्पराओं के प्रभाव से अहिंसा को प्रधानता मिलती गई। महाभारत में अहिंसा को परमधर्म, परमतप, परमसंयम, परममित्र तथा परमसुख कहा है। अनुशासन पर्व में कहा है कि इस विश्व में अपने प्राणों से प्यारी अन्य कोई वस्तु नहीं है। जिस प्रकार मनुष्य अपने ऊपर दया रखता है, उसी प्रकार से दूसरों पर भी रखनी चाहिए। अहिंसा ही एकमात्र धर्म है, अहिंसा सबसे श्रेष्ठ धर्म है क्योंकि इससे सभी प्राणियों की रक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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