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________________ १४२: आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन हुआ, उसके अन्तर्मन में पदार्थों को पाने को लालसा बनी रहती है । निमित्त मिलते ही उसके कषाय भड़क उठते हैं। ब्रह्मचर्य भी केवलशारीरिक है, अथवा गुरुकूलवास भी औपचारिक है, जिसने धर्म के अन्तरंग को स्पर्श नहीं किया, वह बाहर से धूतवादो एवं त्यागी प्रतीत होने पर भी अन्तर से अधूतवादी एवं अत्यागी 'अच्चाई है । १४७ आचारांग में त्यागी मुनि का स्पष्ट लक्षण बताया गया है कि वह प्राप्त कामभोगों का भी सेवन नहीं करता । १४८ दशवैकालिकसूत्र में भी त्यागी-अत्यागी मुनि के स्वरूप की व्याख्या करते हए कहा है कि जो साधक भोग्य पदार्थों के उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर पीठ कर देता है, उन भोगों का हृदय से त्याग कर देता है, वही त्यागी है। इसके विपरीत जो वस्त्र, गन्ध, अलंकारादि भोग्य पदार्थों को उपलब्ध न होने के कारण उनका उपभोग नहीं कर पाता, वह त्यागी नहीं कहलाता१४९ क्योंकि उसको भोगाकांक्षा बनी हुई है। बाह्यरूप से विषय-विरक्त हो जाने पर भी मन से उनके प्रति राग-भाव या आसक्ति दूर न होने से वह सच्चे अर्थ में त्यागी नहीं बन पाता। वह संग ( अत्यागी) ही बना रहता है इसलिए उपशम भाव को छोड़कर पुनः पदच्युत हो जाता है। उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचारांग के अनुसार उपशम की साधना सच्ची साधना नहीं है। आधुनिक मनोविज्ञान को भाषा में इसे दमन-मार्ग भी कह सकते हैं। उपशम का अर्थ होता है विकारों, विषय-कषायों को उपशान्त करना, दबा देना। जैसे-गंदले जल में फिटकरी डालने से मिट्टी नीचे बैठ जातो है और पानी स्वच्छ हो जाता है परन्तु वायु के प्रबल झोकों से शान्त, स्वच्छ पानी में पुनः तरंगे उठने लगती हैं, वैसे ही औपशमिक साधना में विषय-कषायों को ज्ञान के द्वारा दबाकर शान्त कर आगे बढ़ा जाता है। परन्तु दमित विषयकषाय संयोग पाकर पुनः भड़क उठते हैं। विकारों की तरंगे उछल-कूद मचाने लगती हैं । आत्मा का पुनः पतन हो जाता है। यह तो रोग के कारणों को खोजकर उन्हें समाप्त न कर मात्र रोग दबाने का प्रयास है। गीता१५० में भी यही कहा गया है कि साधना के क्षेत्र में दमन का मार्ग समुचित नहीं है। कहा गया है कि सभी प्राणी अपनी प्रकृति के अनुसार व्यवहार करते हैं। वे निग्रह कैसे कर सकते हैं ? चित्त-निरोध या इन्द्रिय-निरोध से तो मन अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त हो जाता है। दमित इच्छाएँ अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर पुनः उद्भूत हो उठती हैं । इसी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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