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________________ १३६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन होता | बाह्य विषय व उनके ग्रहण से बचना मुख्य बात नहीं है। मुख्य बात है-चेतना को अलिप्त रखना, किन्तु यहाँ यह याद रखना चाहिए कि चेतना अन्तर्जागरण को परिपक्व दशा में ही अलिप्त रहती है। जब तक राग क्षीण नहीं होता, तब तक बाह्य विषयों से रक्षा करना आवश्यक है। इस विवेचन के आधार पर यह कह सकते हैं कि साधक के समक्ष प्रिय-अप्रिय विषय तो प्रस्तुत होते रहते हैं किन्तु उसे अपनी इन्द्रियों को बन्द या नष्ट करने को आवश्यकता नहीं है । इन्द्रिय-विषय अचेतन हैं। वे अपने आप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ कुछ भी नहीं हैं। जो उन्हें प्रियताअप्रियता के मनोभाव से देखता है, सूघता है और चखता है, उन्हीं के लिए वे मनोज्ञ-अपनोज्ञ हैं । परन्तु जो उनके प्रति सम रहता है, विरक्त रहता है, उनके लिए वे अच्छे-बुरे कुछ भी नहीं हैं। हम इन्द्रियों द्वारा देखते हैं, सुनते हैं, सूघते हैं, चखते हैं और स्पर्शानुभूति करते हैं तथा मन द्वारा संकल्प करते हैं । मनोज्ञ लगने वाले इन्द्रिय विषय राग उत्पन्न करते हैं और अमनोज्ञ लगने वाले विषय द्वेष उत्पन्न करते हैं। किन्तु वीतरागी के अन्तःकरण में वे विषय राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करते। इस बात की संपुष्टि करते हुए आचारांग में कहा गया है कि कहीं परस्पर कामोत्तेजक बातों में आसक्त व्यक्तियों को ज्ञातपुत्र महावीर हर्ष-शोक से रहित होकर ( तटस्थ ) देखते सुनते थे । १०७ फलितार्थ यह कि देखनासुनना आदि बाह्य विषय हमारे लिए न दोषपूर्ण हैं और न निर्दोष । चेतना की शुद्धि होने पर वे साधक के लिए निर्दोष हैं और चेतना अशुद्ध हो तो वे ही उसके लिए सदोष बन जाते हैं। दोष का मूल चेतना (चित्त ) की शुद्धि-अशुद्धि है, बाह्य विषय नहीं। आचार्य अमितगति मूलाराधना में कहते हैं कि आन्तरिक विशुद्धि से ही बाह्यविशुद्धि होती है और आन्तरिक दोष से ही बाह्य दोष निष्पन्न होते हैं।०८ उत्तराध्ययन में भी यही विचारधारा मिलती है। कहा गया है कि काम-भोग न समता उत्पन्न करते हैं और न विकार। जो उनके प्रति राग-द्वेष रखता है, वही विकार को प्राप्त करता है । १०१ इन्द्रिय और मन के विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप शब्द और संकल्प रागी व्यक्ति के लिए दुःख के हेतु बनते हैं। वीतरागी के लिए वे किंचित् भी दुःख के हेतु नहीं होते ।११० आचार्य शंकर के शब्दों में जो विषयानुरागी है, वही वस्तुतः बद्ध है और जो विषय-विरक्त है, वह मुक्त है ।१११ अतः समाधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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