SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन प्राणी संसार में पापों का अर्जन इन्द्रियों के नियंत्रण में नहीं रह पाने के कारण ही करता है । इन्द्रियों की विषय-वासना के द्वारा परिचालित होकर ही वह पुनः-पुनः जन्मता और मरता है। वस्तुतः काम-वासना या रागोत्पत्ति का मूल आधार ये इन्द्रियाँ हो हैं। इन्द्रियाँ पाँच हैंकान, आँख, नाक, जीभ और त्वचा । इनके मख्य बाह्य विषय भी पाँच हैं-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श। आत्मा या चेतना इन्द्रियों के माध्यम से ही इन्हें ग्रहण करती है, सुनती है, देखती है, सूघती है, चखती है तथा स्पर्शानुभूति करती है। ग्रहण करना इन्द्रिय-गण या स्वभाव है और ग्रहोत विषयों के प्रति मूर्छा करना, आसक्त होना चेतना का कार्य है। इस तरह इन्द्रियों तथा मन के द्वारा जब मनुष्य विषयों की चाह करता है, तब वे विषय उसके लिये बन्धन या आवतं का कारण बन जाते हैं । फिर यह आसक्ति या वासना दो रूपों में बँट जाती है । जब इन्द्रियों का अनुकूल विषयों से सम्पर्क होता है तो रागभाव जागृत होता है और प्रतिकूल विषयों से संयोग होता है तो द्वेष या घृणाभाव जागृत हो जाता है। इस तरह इष्ट विषय के प्रति आकर्षण और अनष्टि विषय के प्रति विकर्षण ये दो ही काम-वासना के मुख्य परिचालक हैं अर्थात् जब इन्द्रिय-विषयों के साथ मन जुड़ जाता है तो वह महान नैतिक पतन का कारण बन जाता है। इसीलिए आचारांग में इन्द्रिय निग्रह एवं मनोनिग्रह अथवा संयमन पर बहुत जोर दिया गया है । आचारांग के अनुसार नैतिक जीवन का सार संयम में समाहित है । संयम शक्ति का स्रोत है। आत्मा में उस शक्ति का अनन्त कोष निहित है। संयम एक प्रकार का कुम्भक है । कुम्भक से जैसे श्वास का निरोध होता है, वैसे ही संयम में इच्छा का निरोध होता है।" ____संयम-शील साधक अपनी इन्द्रियों पर कड़ा नियंत्रण रखता है, ताकि विषय-भोगों में आसक्त न बने । प्रायः जब मन-वाणी और कषाय पर संयमन नहीं रहता तब विध्वंसक प्रवृत्तियाँ हावी हो जाती हैं। अतः इन्हें अनुशासित करना आवश्यक है। आचारांग में कहा है कि 'संजमति णो पगब्भति' अर्थात् संयमो इन्द्रियों का संयमन करता है, उच्छृखल व्यवहार नहीं करता । २ इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचारांग टीका में भी कहा है कि पाप में प्रवृत्त आत्मा को संयम में रखता हुआ साधक असंयम में प्रवत्त नहीं होता। यह भी कहा गया है कि उस (धूतकल्पयोगी ) को हास्यादि प्रमादों का परित्याग कर तथा कछुए की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy