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________________ १२८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन 'खणं जाणिहे पंडिए'3९ अर्थात् ज्ञानी क्षण ( वर्तमान ) को जाने । अतीत व्यतीत हो चुका है। भविष्य अनागत होता है और क्षण वर्तमान होता है । अतः वर्तमान (क्षण) को जानने देखने वाला जागरूक हो जाता है, अप्रमत्त हो जाता है४० ) सूत्रकृतांग और संयुक्त निकाय२ में भी इसकी पुष्टि हुई है। वर्तमान (क्षण ) में जोने वाला स्मृति और कल्पना दोनों से मुक्त हो जाता है । वस्तुतः अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य की कल्पना से ही राग-द्वेष कषाय रूप वृत्तियों का निर्माण होता है । अतः सूत्रकार का कथन है कि तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते हैं, अर्थात् वे अतीत का स्मरण और भविष्य की कल्पना नहीं करते । वे वर्तमान को ही जानते देखते हैं ।४3 तात्पर्य यह कि वर्तमान क्षणान्वेषी साधक दुषित चित्त-वृत्तियों का निर्माण नहीं करते। उनकी चैतन्य धारा या जागरूकता अविछिन्नरूप से बनी रहती है, उनमें विषय-कषाय की धारा नहीं मिलती है। उस अप्रमत्त दशा की प्राप्ति के लिए क्रोध-मान-माया लोभादि मनोंवेगों एवं असावधानी से बचना जरूरी है। सारी दुर्घटनाएँ असावधानी के कारण होती हैं । प्रमाद व्यक्ति के मन को विकृत एवं संकुचित बना देता है। आचारांग में कहा है 'उठ्ठिए णो पमायए' उठो प्रमाद मत करो, अथवा क्षण भी प्रमाद मत करो, भूल मत करो। अप्रमाद ही समस्त प्रमादों का निवारक है। प्रमत्त पुरुष को वीतराग-आज्ञा (धर्म) से बाहर समझो और अप्रमत्त बनकर धर्माचरण करो।४६ आचारांग की तरह प्रमाद और अप्रमाद की चर्चा अथर्ववेद ७, ठाणांग, उत्तराध्ययन ९ दशवैकालिक५० धम्मपद एवं गीता५५ में भी आयी है। इस सम्बन्ध में पाश्चात्य सत्तावादी विचारकों का दृष्टिकोण आचारांग की अप्रमाद की अवधारणा से बहत कुछ साम्य रखता है। वारनर फिटे जिस आत्मचेतनता की बात कहता है, आचारांग को भाषा में वह अप्रमाद है । लेश्या परवर्ती जैन साहित्य में कषाय और लेश्या-सिद्धान्त का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन हुआ है । द्रव्य और भाव रूप से लेश्या और कषाय दोनों के विवेचन में पारस्परिक सामंजस्य इतना है कि उन्हें अलग करके देख पाना कठिन है, क्योंकि कषाय और लेश्या दोनों का सम्बन्ध मनोवृत्तियों से है। फिर भी, दोनों में अन्तर यही है कि कषाय चित्त को विक्षुब्ध करने वाली राग-द्वेषात्मक अशुद्ध मनोवृत्तियाँ हैं अर्थात् उनका सम्बन्ध For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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