SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन है। हिताहित, करणीय-अकरणीय, धर्म-अधर्म और पुण्य-पाप का बोध लुप्त हो जाता है। इन कषायों के आवेश में व्यक्ति प्रायः ऐसे मूर्खतापूर्ण तथा जघन्य कृत्य कर बैठता है, जिसके लिए बाद में उसे पश्चाताप एवं आत्म-ग्लानि का अनुभव करना पड़ता है। इनके क्षय होने पर ही भव-भ्रमण का अन्त आता है और अन्तिम आदर्श की उपलब्धि होती है। आचार्य श्री मन्दिरगणि कहते हैं कि 'कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव'२३ अर्थात् कषाय-मुक्ति से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है । आचारांग में इनके परिणामों का निर्देश कर कषायों को क्षीण करने का उपदेश है ।२४ दर वैकालिक में भी कहा है कि आत्म-हित चाहने वाले को इन चारों कषायों का त्याग कर देना चाहिए ।२५ ___भगवद्गीता२६ में कषाय तुल्य आसुरी वृत्तियों का वर्णन है। बौद्धग्रन्थों में भी इन दुष्प्रवृत्तियों को वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवनविकास में घातक माना गया है। कषाय-विसर्जन का मनोवैज्ञानिक उपाय ____ कषायरूप मानसिक विकारों के दुष्चक्र से बचने के लिए आचारांग में मनोवैज्ञानिक विवेचन मिलता है । आचारांग में साधना का महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक आधार-सूत्र है-अप्रमाद। अप्रमाद का अर्थ है-आत्म-स्मृति या आत्म-जागरूकता । आध्यात्मिक दृष्टि से जागना बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। चित्त को इन कषाय-वत्तियों से मुक्त करने के लिए साधक का सतत जागृत रहना अनिवार्य है। चित्तवृत्तियों की विशुद्धि के बिना साधना को दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। जो साधक सजग रहता है, अप्रमत्त चेता है, उसके अन्तर्मन में पाप-प्रवृत्तियाँ कभी प्रविष्ट नहीं होती। दुष्प्रवृत्तियाँ तो उसके जीवन में पलती-पनपती हैं, जो प्रमादग्रस्त है और प्रमाद अपने आप में विषय-कषाय है। कषायें जब हावी हो जाती हैं तब मनुष्य भयभीत बन जाता है । आचारांग में स्पष्ट कहा है कि 'सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स णत्थि भयं' प्रमादी सब तरह से भयभीत रहता है, जबकि अप्रमत्त को किसी तरह का भय नहीं रहता ।२८ आचारांगण में भी कहा है कि अप्रमत्त को चलते, उठतेबैठते, खड़े हाते, खाते-पीते कहीं भी भय नहीं होता ।२९ सूत्रकृतांग में भी इसी बात की पुष्टि की गई है ।30 बुद्ध भी यही कहते हैं कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमरता है और जागरूक को कहीं भय नहीं होता।३१ धम्मपद३२ एवं सौन्दरनन्द३३ में भी प्रमाद-अप्रमाद की चर्चा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy