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________________ नैतिक प्रमाद और आचारांग : ११५ यह नैतिक कर्तव्य है कि वह इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर मरणधर्मा जगत् में निष्कर्मदर्शी बने । १५५ इससे स्पष्ट है कि आन्तरिक विकास के लिए इन्द्रिय-जन्य अनुभूतियों का दमन नहीं करना है अपितु उसके बहिर्मुखी प्रवाह को मोड़कर मोक्ष की दिशा में नियोजित कर देना है। इस दृष्टि से आचारांग और पूर्णतावाद के विचारों में काफी समानता परिलक्षित होती है। जिस प्रकार पूर्णतावाद एक व्यापक आत्मा की बात करता है उसी प्रकार आचारांग भी एक की व्यापक (पूर्णात्मा) आत्मा की अवधारणा को स्वीकार करता है । आचारांग एवं पूर्णतावादियों की व्यापक आत्मा का आशय राग-द्वेष रहित अर्थात् पूर्ण वीतरागी आत्मा से है। इस अवस्था में वह 'स्व' और 'पर' अथवा अपने और पराये की भेदबुद्धि से ऊपर उठ जाता है तथा सबके प्रति समान व्यवहार करता है। __ सामान्यतया हम देखते हैं कि रागी, राग से दृश्यमान जगत् में ( रक्त ) होता है और द्वेषी, द्वेष से, जबकि वीतरागी कर्म के उपादन राग और द्वेष इन दोनों अन्तों से दूर रहता है,१५६ क्योंकि ये राग और द्वेष की वृत्तियाँ ही समत्व को भंग करती हैं एतदर्थ ही वह ज्ञानी पुरुष न तो हर्षित होता है और न कुपित ।१५० राग-द्वेषात्मक वृत्तियों से ऊपर उठ जाने के कारण वह प्रत्येक परिस्थिति में समदर्शी बना रहता है। इस अर्थ में आचारांग पूर्णतावादियों की व्यापक आत्मा की अवधारणा के समान ही हमें 'सयंतुल्लमण्णेसि' के द्वारा 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' अर्थात् 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की बात सिखाना चाहता है। __ उपयुक्त समग्र विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आचारांग में आत्मपूर्णता या आत्म-सिद्धि का अर्थ चेतना की ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं संकल्पात्मक शक्तियों की पूर्णता है । इन तीनों. पक्षों का अनन्त वीर्य के रूप में अभिव्यक्त हो जाना ही आत्मपूर्णता है। यह वह अवस्था है जिसमें आत्मा पूर्णात्मा बन जाता है। इस दृष्टि से आचारांग और पूर्णतावाद दोनों में काफी विचार-साम्य दृष्टिगोचर होता है। न केवल आचारांग में ही, अपितु भारतीय विचारधारा में भी आत्म-लाभ को अवधारणा नैतिक जीवन के साध्य के रूप में स्वीकृत रही है। वृहदारण्यकोपनिषद्१५ एवं उपदेशसहस्री१५९ में भी आत्म-लाभ सम्बन्धी विचार मिलते हैं । गीता में भी परमात्मा को पूर्ण पुरुष के रूप में माना गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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