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________________ नैतिक प्रमाद और आचारांग : ९१ करता है जो कि स्पेन्सर के दर्शन में अनुपलब्ध है । स्पेन्सर, जीवन-रक्षण के अधिकार को स्वीकार करता है किन्तु जीवन-रक्षण के कर्तव्य को प्रस्तुत नहीं करता, जबकि आचारांग बौद्धिक आधार पर दूसरों की पीड़ा को आत्मवत् मानकर पर-पीड़ा से निवृत्त होने का सन्देश देता है और इस प्रकार जीवन-रक्षण को कर्त्तव्य के रूप में भी प्रस्तुत करता है । आचारांग केवल आत्म-रक्षण की ही बात नहीं करता, अपितु सभी जीवों के रक्षण की बात करता है। ___ आचारांग में प्रतिपादित ये विचार सूत्रकृतांग3६ दशवैकालिक और उत्तराध्ययन ८ में भी मिलते हैं । आचारांग के समान कौषीतकी उपनिषद्,3°महाभारत४० धम्मपद' मनुस्मृति४२ श्रीमद्भागवत् पुराण और चाणक्यनीति४ में भी जीवन-रक्षण प्रवृत्ति को आवश्यक बताया गया है। परिवेश से अनुरूपता : जिस प्रकार विकासवादी, समायोजन के प्रत्यय को आवश्यक मानते हैं तथा उसे नैतिकता का आधार बताते हैं, उसी प्रकार आचारांग भी समायोजन के प्रत्यय को स्वीकार करता है, किन्तु दोनों में समायोजनों का आशय भिन्न-भिन्न है । स्पेन्सर बाह्य समायोजन की बात करता है, जबकि आचारांग आन्तरिक समायोजन को महत्त्व देता है। आचारांग के अनुसार सम योजन का अभिप्राय चेतना या आत्मा का स्वस्वरूप के अनुरूप होने से है। उसमें इसी स्वस्वरूप से अनुरूपता को नैतिक जीवन का साध्य माना गया है। जो चेतना अपने स्वस्वरूप के अनुरूप होती है, वह नैतिक है और जो स्वस्वभाव के प्रतिकूल होती है, वह अनैतिक है। शुद्ध चैतन्य का अपना स्वस्वभाव समता है, यही समता उसका साध्य है। साधना काल में जो साध्य होता है, वह सिद्धि-काल में स्वभाव बन जाता है, इसीलिए आचारांग में समता से अपनो आत्मा को प्रसादित करने की बात कही गई है४५, क्योंकि समत्व और मुनित्व या नैतिकता में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है।४६ आचारांग, चित्तवृत्तियों (राग-द्वेष, कषायादि) और स्वस्वरूप के मध्य समायोजन को महत्त्वपूर्ण मानता है। उसके अनुसार समता रूप स्वस्वभाव में स्थित रहने के लिए चित्त-विक्षोभ का निराकरण आवश्यक है। यहाँ दोनों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ आचारांग में समता को स्वभाव कहा गया है, वहाँ विकासवादी-संघर्ष को स्वभाव कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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