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________________ ( 13 ) १६ आचार्य अमृतचन्द ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक कृति में रात्रिभोजन के विषय में दो आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं। प्रथम तो यह कि दिन की अपेक्षा रात्रि में भोजन के प्रति तीव्र आसक्ति रहती है और रात्रिभोजन करने से ब्रह्मचर्य - महाव्रत का निर्विघ्न पालन संभव नहीं होता। दूसरे रात्रिभोजन के पकाने अथवा प्रकाश के लिये जो अग्नि या दीपक प्रज्वलित किया जाता है, उसमें भी अनेक जन्तु आकर मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं तथा भोजन में भी गिर जाते हैं अतः रात्रिभोजन हिंसा से मुक्त नहीं है। आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार १७ में रात्रिभोजन - विरमण को पंच महाव्रतों की रक्षा के लिए आवश्यक माना है। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी श्रमणों के लिए रात्रिभोजन - विरमण व्रत का पालन आवश्यक माना गया है। १८ दिगम्बर परम्परा के आचार्य देवसेन", चामुण्डराय, वीरनन्दी " सभी ने रात्रिभोजन त्याग को महाव्रतों की रक्षा के लिए आवश्यक मानते हुए उसे छठा अणुव्रत माना है। कितने ही आचार्यों ने रात्रिभोजनविरमण को अणुव्रत न मानकर उसे अहिंसा व्रत की भावना के अन्तर्गत माना है। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक २३, विद्यानन्द " और श्रुतसागर " सभी के यही मत हैं। भले ही तत्त्वार्थसूत्र के सभी व्याख्याकार रात्रिभोजन - विरमण व्रत को छठा व्रत या अणुव्रत न मानें, तथापि सभी ने रात्रिभोजन के दोषों का निरूपण किया है और इस बात पर बल दिया है कि रात्रिभोजन श्रमण के लिए सर्वथा त्याज्य है। २५ Jajn Education International For Private & Personal Use Only २० www.jainelibrary.org
SR No.002109
Book TitleRatribhojan Tyag Avashyak Kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSthitpragyashreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2009
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Literature, & Paryushan
File Size3 MB
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