SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (10) हम पाते हैं कि रात्रिभोजन त्याग जैन मुनियों का औत्सर्गिक व्रत है। किसी भी परिस्थिति में इस व्रत का खंडन नहीं किया जा सकता है। साथ ही रात्रिभोजन करने से अहिंसादि महाव्रतों का सम्यक्तया परिपालन भी नहीं हो सकता है। प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों की दृष्टि से निषेध वर्तमान जीवन शैली में रात्रिभोजन सभ्यता का प्रतीक बन गया है। यहाँ तक कि धार्मिक आयोजन भी इससे अछूते नहीं रह गए हैं। विडम्बना यह है कि जो रात्रिभोजन नहीं करता, उसे बैकवर्ड (पिछड़ा) माना जाता है। जहाँ 'अहिंसा परमो धर्मः' के उच्च संस्कार दिये जाते हैं ऐसे आराधना भवन, जैन भवन, आयंबिल भवन आदि स्थानों पर भी रात्रिभोजन का प्रचलन बढ़ गया है। जबकि जैन परम्परा में रात्रिभोजन किसी भी रूप में मान्य नहीं है। जैनाचार्यों ने कठोरता से इस बात का निषेध किया है। योगशास्त्र के तीसरे अध्याय में रात्रिभोजन के दोषों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि रात के समय निरंकुश संचार करने वाले प्रेत-पिशाच आदि अन्न जूठा कर देते हैं, इसलिये सूर्यास्त के पश्चात् भोजन नहीं करना चाहिये। रात्रि में घोर अंधकार होने से अवरुद्ध शक्तिवाले नेत्रों से भोजन में गिरते हुए जीव दिखाई नहीं देते हैं, अतः रात के समय भोजन नहीं करना चाहिये। रात्रिभोजन करने से होने वाले दोषों का वर्णन करते हुए कहा है कि जो दिन-रात खाता रहता है, वह सचमुच स्पष्ट रूप से सींग और पूँछ रहित पशु ही है। जो लोग दिन के बदले रात को ही खाते हैं, वे मूर्ख मनुष्य सचमुच हीरे को छोड़कर काँच को ग्रहण करते हैं। दिन के विद्यमान होते हुए भी जो अपने कल्याण की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002109
Book TitleRatribhojan Tyag Avashyak Kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSthitpragyashreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2009
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Literature, & Paryushan
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy