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________________ (8) रात्रिभोजन करने में अनेक दोष हैं और रात्रि को भोजन बनाने में भी दोष है। अत: दिन का बनाया भोजन रात को नहीं खाना चाहिये और रात के समय भोजन बनाना भी नहीं चाहिये, इसलिये पूर्वोक्त तीनों विकल्प रात्रिभोजन दोष के अन्तर्गत होने से वर्जनीय हैं। दशवैकालिकसूत्र के तीसरे अध्ययन में ५२ अनाचीर्णों में पाँचवां अनाचीर्ण रात्रिभोजन बताया गया है अर्थात् रात्रिभोजन को अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार न कहकर अनाचार कहा है। पुनः प्रस्तुत सूत्र के चौथे अध्ययन में रात्रिभोजन-विरमण को छठा व्रत कहा है तथा प्राणातिपात-विरमण आदि पाँचों विरमणों को महाव्रत कहा है। दशवैकालिक के छठे अध्ययन में श्रमण जीवन के अठारह गुणों का उत्कीर्तन करते हुए रात्रिभोजन त्याग को महाव्रत के साथ सम्मिलित कर "वयछक्कं" छः व्रतों का उल्लेख किया है। उसमें पाँचों महाव्रतों के समान ही छठे रात्रिभोजन त्याग को भी महत्त्व दिया गया है। आठवें अध्ययन की २८वीं गाथा में तो साधुसाध्वी के लिए सूर्यास्त से सूर्योदय तक आहारादि पदार्थों के सेवन की मन से भी इच्छा नहीं करने का निर्देश दिया गया है, क्योंकि रात्रिभोजन विरमण व्रत के भंग से अहिंसा महाव्रत दूषित हो जाता है। एक महाव्रत के दूषित होने पर अन्य महाव्रतों के भी दूषित हो जाने की संभावना बनी रहती है। रात्रि में भोजन करने से अनेक सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा होती है, क्योंकि मनुष्य उन छोटे-छोटे प्राणियों को देख नहीं पाता जिनकी संख्या में अंधेरा होते ही अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है, इसके अलावा छोटे-छोटे जीव कुछ ऐसे होते हैं, जो रोशनी देखकर स्वत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002109
Book TitleRatribhojan Tyag Avashyak Kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSthitpragyashreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2009
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Literature, & Paryushan
File Size3 MB
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