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________________ कन्नड जैन साहित्य का इतिहास इस प्रयत्न में वह अवश्य सफल हुआ है। इस महाकवि ने तीर्थंकरों के पंच कल्याणकों की ही तरह भोगविजय, दिग्विजय, योगविजय, अर्ककीर्तिविजय और मोक्ष विजय नाम को पांच संधियों में भरत की कथा का विस्तार किया है। भरतेशवैभव के भोगविजय कथा भाग में भरत के द्वारा अनुभूत लौकिक सुख भोगों का एवं उसके ऐश्वर्य और समृद्धि का आकर्षक चित्र प्रस्तुत किया गया है जो हमें सहसा तीर्थकर के गर्भावतरण-कल्याणक का स्मरण दिलाता है। वस्तुतः भोगसंधि श्रृंगाररस का एक महासागर है। भरत चक्रवर्ती के जीवन का शृंगारिक चित्रण आचार्य जिनसेन के पूर्वपुराण में भी मिलता है। वास्तव में रत्नाकर ने भरत को एक अत्यंत वैभवशाली एवं सुखी व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है। रत्नाकर ने 'भोगविजय' नामक इस सन्धि अध्याय ) में पुराणोक्त भरत की कथावस्तु में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया है, यद्यपि इसका वर्णन भाग कवि का अपना है। रत्नाकर ने दिग्विजय की कथावस्तु में अवश्य परिवर्तन किया है। पुराण का भरत निर्दयी तथा कठोर है, परन्तु रत्नाकर का भरत दयालु एवं मृदुहृदयी है। उसका भरत युद्ध को पसन्द नहीं करता है, बल्कि विरक्त होकर तपस्या के लिए गये हुए अपने सहोदरों के लिए बहुत दुःखी होता है। रत्नाकर एक स्वतंत्रचेता कवि है, उसे जो भी बात ठीक लगती है, स्वीकार कर लेता है। यही कारण था कि मुडबिद्री का श्रावकवर्ग रत्नाकर से असन्तुष्ट हो गया था, यद्यपि श्रावकवर्ग के असन्तोष के लिए तत्कालीन स्थानीय भट्टारक भी एक कारण माने जाते हैं। रत्नाकर के शेष तीन कथा भागों में मूल कथा की दृष्टि से कोई विशेष परिवर्तन नहीं है। 'भरतेशवैभव' की महत्ता कवि की काव्य दृष्टि के कारण है। महाकवि को अपने कथानायक कर्मवीर भरत के प्रति अपार भक्ति थी। कवि सांसारिक भोग-विलास को आध्यात्मिक विकास का आत्यन्तिक विरोधी नहीं मानता है। वह यह मानता है कि निष्काम भाव से संसार में रहते हुए आध्यात्मिक विकास सम्भव है । इसलिए वह अपनी कथा का प्रारम्भ भरत के भोग-विलास के वर्णन से करता है। भरत षट् खण्ड का अधिपति एवं नवनिधि का स्वामी था। भोग-विलास की साधनरूप सुन्दर स्त्रियों की भी उसे कमी नहीं है, फिर भी भरत धर्म की उपेक्षा नहीं करता है। राज्य लक्ष्मी का संचय एवं काम का सेवन करते हुए भी वह गृहस्थ-धर्म के मूला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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