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________________ कन्नड जैन साहित्य का इतिहास और पवनवेग नाम के दो राजकुमार पाटलीपुर जाकर वहां के ब्रह्मालयस्थ नगाड़े को बजाकर वहां रखे हुए सिंहासन पर बैठ जाते हैं । इसके बाद ब्राह्मण विद्वानों द्वारा उन्हें यह ज्ञात होता है कि जो विद्वान् इस नगाड़े को बजाकर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करते हैं, वे ही इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी होते हैं । अतः बतलाइए कि आपलोग किस विषय के विशेषज्ञ हैं। इस बात को सुनकर राजकुमारों ने जवाब दिया कि हम विद्वान् नहीं हैं । किन्तु यों ही आकर इस सिंहासन पर बैठे हैं। इतना कहकर वे सिंहासन से उठकर नीचे बैठ जाते हैं।' बाद में उन राजकुमारों ने ब्राह्मण विद्वानों को जैन धर्म का स्वरूप समझाया और उनके धर्म का अनेक प्रकार से निराकरण कर जयपत्र प्राप्त किया। नागवर्म (प्रथम) उन्होंने छन्दोंबुधि एवं कर्णाटक कादम्बरी की रचना की है। उन्हें वीरमार्तण्ड चाउण्डराय का संरक्षण प्राप्त था। वे आचार्य अजितसेन के शिष्य थे। आर० नरसिंहचार्य के मत से इनका समय लगभग ९९० ई० है । महाकवि पम्प तथा पोन्न की तरह यह भी वेंगिविषय के निवासी थे। नागवर्म के पिता वैण्णमय्य वैदिक ब्राह्मण थे यद्यपि नागवर्म जैनधर्म के अनुयायी हो गये थे । पम्प एवं पोन्न की तरह इन्होंने किसी धार्मिक ग्रन्थ की रचना नहीं की है । इन्होंने अपने को युद्धवीर और सत्कवि कहा है। कन्नड साहित्य में कादम्बरीसदृश उत्कष्ट रचना दूसरी नहीं मिलती है। बाणभट्ट की संस्कृत में रचित कादम्बरी काव्यमय गद्य में है और वह अनेक स्थलों पर दुर्बोध बनी हुई है। ऐसी महाकृति को चम्पूरूप में कन्नड में लिखनेवाले नागवर्म वास्तव में अभिनन्दनीय हैं। नागवर्म का यह ग्रंथ संस्कृत में रचित कादम्बरी का मात्र कन्नड अनुवाद नहीं है। इसमें अनेक वर्णन छोड़ भी दिये गये हैं। फिर भी मूल के सौन्दर्य की रक्षा करते हुए नागवर्म ने इसे अपने ही ढंग से एक स्वतंत्र कृति का रूप प्रदान किया है। कवि की भाषा सुगम एवं सशक्त और कथानिरूपण प्रवाहमय है। नागवर्म की दूसरी कृति छन्दोंबुधि छन्दशास्त्र से सम्बन्धित एक सुन्दर कृति है । नागवर्म (द्वितीय) इन्होंने काव्यावलोकन, कर्णाटकभाषाभूषण, वस्तुकोश और अभिधानरत्नमाला नामक ग्रंथों की रचना की है। ये सभी ग्रन्थ विद्वत्तापूर्ण एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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