SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ कन्नड जैन साहित्य का इतिहास में राघवपाण्डवीय के रचयिता श्रुतकीति के समकालीन किसी देवचन्द्र की भी स्तुति की गई। यही देवचन्द्र कवि के गुरु रहे होंगे। कीर्तिवर्म ने अपने सम्बन्ध में कविकीर्तिचन्द्र, कन्दर्पमूर्ति, सम्यक्त्वरत्नाकर, बुधभव्यबान्धव, वैद्यरत्न, कविताब्धिचन्द्रम्, कीर्तिविलास आदि विशेषणों का उल्लेख किया है। वस्तुतः यह एक उल्लेखनीय बात है कि जैन कवियों ने प्रत्येक विषय पर अपनी कलम चलाई है। इन कवियों ने केवल मानव हित के लिए ही नहीं, पशु-पक्षियों के मंगल के लिए भी बहुत कुछ किया है। वैसे अहिंसा-प्रधान जैनधर्म के अनुयायी के लिए यह कोई नई बात नहीं है। जैन तीर्थंकरों की समवसरणसभा में भी किसी भेद-भाव के बिना प्राणीमात्र को प्रवेश करने का एवं उनके कल्याणकारी उपदेश को सुनने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था । वस्तुतः जिस धर्म में इस प्रकार की उदारता नहीं है, वह विश्वधर्म कहलाने का दावा नहीं कर सकता। इसलिए कीर्तिवर्म का यह प्रयास वास्तव में स्तुत्य ही नहीं, अनुकरणीय भी है । संस्कृत में 'मृगपक्षिशास्त्र' नामक एक और जैनग्रंथ है जो कि अपने विषय की एक अमूल्य कृति है। इस ग्रंथ की प्रशंसा केवल पौर्वात्य विद्वानों ने ही नहीं, पाश्चात्य विद्वानों ने भी मुक्तकंठ से की है। इस समय यह ग्रंथ अप्राप्य है। कीर्तिवर्म के गोवैद्य में गोव्याधियों की औषध, मंत्र और यंत्र आदि विस्तार से बतलाये गये हैं। यह ग्रंथ प्रकाशनीय है। इसमें सन्देह नहीं है कि कीतिवर्म का प्रयास प्रशंसनीय है।' ब्रह्मशिव ___ इन्होंने समय परीक्षा एवं त्रैलोक्यचूडामणिस्तोत्र की रचना की है। इनका गोत्र वत्स, जन्मस्थल पोट्टणगेरे और पिता सिंगराज हैं। कवि ने अपने को अग्गल का मित्र बतलाया है। किंतु यह ज्ञात नहीं है कि यह अग्गल कौन से थे ? कम से कम ये चन्द्रप्रभपुराण के रचयिता अग्गलदेव (११८९) तो नहीं ही हैं । ब्रह्मशिव के गुरु मुनि वीरनन्दि हैं । समयपरीक्षा के एक पद्य से कवि सौर, कौलोत्तर आदि सम्प्रदायों तथा वेद और स्मृति आदि धर्म ग्रन्थों का विशेषज्ञ मालूम होता है। इन्होंने उपर्युक्त धर्मग्रंथों को सारहीन ठहराया है। इनके एक पद्य से यह भी ज्ञात होता है कि पहले यह शैव थे। उसे सारहीन अनुभव कर, बाद में इन्होंने जैनधर्म को स्वीकार किया था। इसकी पुष्टि कवि १. विशेष जिज्ञासु 'लोकोपयोगी जैन कन्नड ग्रंथ' शीर्षक मेरा लेख देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy