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________________ १२४ तमिल जैन साहित्य का इतिहास वेश के समय ई० सातवीं शती में 'तिरुवळ्ळुवमाले' की रचना हुई होगी । पौराणिक कथाओं के समावेश के प्रमाण ई० सातवीं शती के शैवसंत तिरुनाचुक्करशर के पद्यों और प्राचीन पांड्य राजाओं के शिलालेखों तथा अन्तिम संघकालीन ग्रंथ 'इरैयनार् अकप्पॉरुळ' ( भावपक्ष का लक्षण ग्रंथ ) में स्पष्ट मिलते हैं । संघकालीन ग्रन्थ माने जाने वाले 'ऍट्टुत्तां' और पत्तुपाट्टु' ( पद्यसंग्रह ) की शैली को तिरुक्कुरल और शिलप्पदिकारम् की शैली से भिन्न सिद्ध करने के लिए कुछ विद्वान् शब्दों के प्रयोगभेद को प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत करते हैं । 'कलितॉक' और 'पारिपाडल्' में भी, जो संघसाहित्य में गिने जाते हैं, वह शैली भेद पाया जाता है । वे दोनों ग्रन्थ 'गन्धवं मार्ग' या चॅन्दुरैमार्गम्' नामक गीतप्रणाली के हैं । 'शिलप्पदिकारम्' में उन दोनों शैलियों के साथ 'वेण् तुरै मार्गम्' नामक नाटकीय शैली भी अपनायी गयी है । अतः पंडितों से निर्धारित शैलियों के साथ समयानुकूल नवीन शैली को अपनाना उन्मुक्त चिंतक कवियों के लिए सहज ही है । तिरुवळ्ळुवर ने अपने लोकहितकारी महान् ग्रन्थ के लिए सार्वजनीन एवं सरल शैली अपनायी । इसीलिए इस नवीन शैली में बोलचाल की सरल भाषा का-सा प्रवाह है । तिरुक्कुरळ् में एक सौ पच्चीस संस्कृत शब्द मिलते हैं । तत्कालीन जन भाषा में घुले-मिले शब्दों को ही स्पष्ट अभिव्यंजना के लिए तिरुवळ्ळुवर ने अपनाया था । ई० पू० दूसरी-तीसरी शती के गुफा - शिलालेखों में भी कई संस्कृत शब्द पाये जाते हैं । यद्यपि उन १२५ शब्दों में सबको संस्कृत मानने के लिए कई विद्वान् तैयार नहीं हैं, तथापि सबको संस्कृत मानने पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि दो प्रतिशत संस्कृत शब्द भी तिरुक्कुरल में नहीं हैं । तकै (समास ) कुछ विद्वानों का मत है कि तिरुक्कुरल के प्रथम पद्य का 'आदिभगवन्' शब्द जो ताँकै चॉल ( समस्तपद ) है, नयी शैली का परिचायक है, जो संघकालीन साहित्य में नहीं मिलती । किन्तु ऐसी बात नहीं है । चित्तिरमाडम् ( सुंदर भवन या चित्रोंवाला भवन ) शब्द, 'चित्तिरमाडत् तुंचिय नन्मारन् ' नामक पाण्ड्यनरेश के साथ संघकालीन पद्य में प्रयुक्त हुआ है । इसी प्रकार 'गूढाकारम्' समस्तपद के रूप में संघ - साहित्य में आया है। तमिल शब्द के साथ संस्कृत शब्द के सम्मिलित रूप को हरिसमास कहते हैं । यह प्रयोग प्राचीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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