SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म और तमिल देश प्रारम्भ-काल नाम . भारतीय इतिहास में जैनधर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है। जैन साधुओं और विद्वानों ने अपने धर्म के प्रचार-प्रसार में जनता की व्यावहारिक भाषा को माध्यम बनाया । उन्होंने आम लोगों को बचपन से ही जैन संस्कार देने का प्रयास किया और एतदर्थ जैन दर्शन तथा साहित्य को भी उनकी मातृभाषा में प्रस्तुत किया । यही कारण था कि जैन विद्वानों ने दक्षिण प्रदेश की तमिल भाषा में भी अपना साहित्य रचा और तमिल के विकास में पर्याप्त योगदान दिया। 'जिन' उस पूतात्मा को कहते हैं, जो पूर्णतया जितेन्द्रिय हो और भव परम्परा से विमुक्त हो गया हो । तमिल भाषा में 'जिन' के द्वारा उपदिष्ट धर्म को 'जैनम्' कहते हैं, तथा उस धर्म के अनुयायियों को 'जैनर' कहते हैं। जैन साधु को संस्कृत भाषा में 'श्रमण' तथा प्राकृत भाषा में 'समण' कहा जाता है। यही शब्द तमिल में आकर 'चमणर' और 'अमणर' हो गया है। अब तो यह शब्द सामान्य जैन अर्थात् जैन श्रमण एवं जैन गृहस्थ दोनों के लिए व्यवहृत होता है । 'जिन' को ही 'अरुकर' भी कहते हैं जो कि संस्कृत शब्द अर्हत् का तमिल रूप है। इसी आधार पर जैनियों को 'आरुहतर' ( संस्कृत रूपआर्हत ) के नाम से भी पुकारा जाता है । जैन-मत में राग-द्वेष रूपी ग्रंथियों से पूर्णतया छुटकारा पा जाने की अवस्था को केवलदशा या वीतराग दशा कहते हैं, इसीलिए जैनों को 'निर्ग्रन्थ' की संज्ञा मिली, जिसका प्राकृत रूप 'निगंठ' है। इसी कारण जैन मत को 'निगंठवादम्' भी कहते हैं। 'पिण्डिमरम्' (अशोकवृक्ष) के नीचे अर्हत् भगवान् के विराजने की अनुश्रुति के आधार पर जैनों को 'पिण्डियर' (अर्थात् अशोकवृक्ष के नीचे विराजनेवाले भगवान् के उपासक) नाम से तमिल ग्रंथों में निर्दिष्ट किया गया है। 'चावकर' (श्रावक) उन जैनों को कहते हैं, जो गृहस्थ होते हैं । परम्परा जैनों की धारणा है कि जैनधर्म अति प्राचीन है। जैन धर्म के अन्तिम चौबीसवें तीर्थकर ज्ञातपुत्र वर्धमान महावीर हुए थे। उनका निर्वाण ईसवी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy