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________________ षट्पदि और सांगत्य युग इन्होंने एतदर्थ 'भाषामञ्जरी' नामक संस्कृत वृत्ति एवं 'मअरीमकरंद' नामक संस्कृत व्याख्या भी लिखी है। कवि ने स्वयं अपने को संस्कृत और कन्नड दोनों भाषाओं के व्याकरणों का मर्मज्ञ बतलाया है । निस्सन्देह भट्टाकलंक अपार एवं अगाध पाण्डित्य के धनी थे। यह दक्षिण कन्नड जिला के अकलंकदेव के शिष्य थे । अतः भट्टाकलंक वहीं के निवासी रहे होंगे। धरणि पण्डित _इन्होंने 'वराङ्गनृपचरिते' और 'बिज्जलचरिते' की रचना की है । इनका समय लगभग ई० सन् १६५०है। इनके पिता विष्णुवर्धनपुर के पद्मपंडित थे। वराङ्गनुपचरिते को सर्वप्रथम जटासिंहनन्दि ने संस्कृत में रचा-मया था । इसी को बंधवम ने 'जीवसम्बोधन' में संग्रहरूप में दिया था। धरणिपंडित ने इस कथा को भामिनि षट्पदि में विस्तार से लिखा । यह ग्रंथ पूर्णरूप में नहीं मिला है। ___ कवि का दूसरा ग्रंथ 'बिज्जलरायचरिते' सांगत्य छंद में है । इसमें लगभग १९५० पद्य हैं । इसमें बसवण्ण का इतिहास लिखा गया है। बसवण्ण कल्याणपुर के जैन राजा बिज्जल का सेनापति था। इसने बिज्जल को विषपूर्ण आम दिलाकर मरवा डाला। इससे रुष्ट होकर सेना बिजल को मारने के लिए प्रस्तुत हुई। यह जानकर बसवण्ण वृषभपुर गया और वहाँ एक कूप में कूदकर आत्महत्या कर ली। यही ग्रंथ का सार है । नूतननागचंद्र और चिदानंद नूतननागचन्द्र ने लगभग ई. सन् १६५० में 'जिनमुनितनय' की और चिदानंद ने लगभग ई० सन् १६८० में 'मुनिवंशाभ्युदय' की रचना की है। जिनमुनितनय नीति और धर्म प्रतिपादक एक लघुकाय कृति है। इसमें केवल १०९ कंद पद्य हैं। इनका प्रत्येक पद्य जिनमुनितनय शब्द से पूर्ण होता है। इसीलिए इसका नाम जिनमुनितनय पड़ा। मुनिवंशाभ्युदय सांगत्य में है । इसमें जैन गुरुपरम्परा दी गई है। इसके साथ ही साथ इसमें श्रुत केवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त की दक्षिण-यात्रा का विवरण भी दिया गया है। देवचंद्र इन्होंने 'राजावलीकथे' और 'रामकथावतार' नामक दो ग्रंथों की रचना की है। इनका समय ई० सन् १७७०-१८४१ है। देवचन्द्र मैसूरनरेश सुम्मडि कृष्णराज के समकालीन थे। राजाश्रित वैद्य सूरि पंडित के प्रोत्साहन से ही इन्होने 'राजावलीकथे' की रचना की थी। इसमें जैनधर्म के इतिहास की अनेक बातें तथा राजा एवं कवियों की जीवनियां दी गयी हैं । इसमें मैसूर के राजाओं की वंशावली भी दी गई है । देवचन्द्र का 'रामकथावतार' एक चम्पू ग्रंथ है । महाकवि नागचन्द्र ( अभिनवपंप ) से इन्होंने केवल कथा एवं भावों को ही नहीं लिया है बल्कि उनके अनेक पद्यों का अनुवाद भी किया है। ग्रंथ सामान्य स्तर का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002100
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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