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________________ कथा-साहित्य ३३९ में सागरदत्त मुनि को देखा। वे एक सिंह को संलेखना करा रहे थे। कुमार ने उनसे अश्व द्वारा अपने हरण का कारण पूछ। । मुनिराज ने कहा-एक समय कोशांबी का राजा पुरन्दरदत्त अपने मंत्री वासव के साथ उद्यान में गया। वहाँ आचार्य धर्मनन्दन चारगतिस्वरूप संसार के विषय में अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। राजा ने वहाँ बैठे अनेक दीक्षितों याने चण्डसोम, मानभट्ट, मायादित्य, लोभदेव और मोहदत्त के सम्बन्ध में प्रश्न किये और उत्तर में आचार्य ने उन पात्रों के वृत्तान्त कहे। उन्होंने कहा कि ये सब पूर्व जन्मों में क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह के वशीभूत हो संसार में घूमते फिरे और फिर दीक्षा लेकर संयम का पालन करते रहे। फिर धर्मनन्दन आचार्य वहाँ से अन्यत्र विहार कर जाते हैं। चण्डसोम आदि दीक्षित मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। उन्होंने वहाँ एक-दूसरे को सम्बोधित करने की प्रतिज्ञा की थी और एक समय धर्मनाथ तीर्थकर के समवसरण में पहुँच कर इन पाँचों देवों ने अपने भविष्य के सम्बन्ध में प्रश्न किये थे। कुछ समय बाद लोभदेव का जीव देवलोक से च्युत होकर मनुष्यलोक में सागरदत्त व्यापारी के रूप में जन्म लेता है और कालान्तर में दीक्षा लेकर सागरदत्त मुनि हो जाता है जो कि मैं ( सागरदत्त मुनि) तुम्हारे सामने हूँ। पूर्वभव के मानभट्ट का जीव तुम (पूछनेवाले) कुवलयचन्द्र हो और मायादत्त का जीव दक्षिण देश के राजा की पुत्री 'कुवलयमाला' हुआ है और चण्डसोम का जीव यह सिंह है जिसे मैं प्रतिबोध दे रहा हूँ, तथा तुम और कुवल्यमाला से पृथ्वीसार नामक कुमार होगा। सागरदत्त मुनि की सूचनानुसार कुवलयमाला को प्रतिबोध कराने के लिए कुवलयचन्द्र दक्षिण देश की ओर तत्काल रवाना हुआ।' वहाँ विजयानगरी के राजा विजयसेन और रानी भानुमती से कुवलयमाला उत्पन्न हुई थी। १. कुवलयमाला, पृ० १११, कण्डिका १९६. मार्ग में शान्त बैठे हुए सिंह को देखकर कुवलयचन्द्र को पूर्वजन्म का सम्बन्ध स्मरण हो माता है और उस सिंह की ऐसी स्थिति देख वह भगवान् जिनेन्द्र के वचन स्मरण करता है : 'यो मे परियाणइ सो गिलाणं परिवरह । यो गिलाणं परिवरह सो मम परियाणह' । यह वाक्य हमें पालि महावग्ग (पृ. ३१.) में भाये उस बुद्ध-वचन की याद दिलाता है जिसमें कहा गया है : 'यो भिक्खवे में उपहेय्य सो गिलानं उपहइय्या'। यह अद्भुत साम्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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