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________________ मलकार ३. वाग्भटालंकार-वृत्ति: खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि के संतानीय जिनतिलकसूरि के शिष्य उपाध्याय राजहंस (सन् १३५०-१४०० ) ने 'वाग्भटालंकार' पर वृत्ति की रचना की है। ४. वाग्भटालङ्कार-वृत्ति: खरतरगच्छीय सागरचंद्र के संतानीय वाचनाचार्य रत्नधीर के शिष्य ज्ञान प्रमोदगणि वाचक ने वि० सं० १६८१ में 'वाग्भटालंकार" पर २९५६ श्लोकपरिमाण वृत्ति की रचना की है।' ५. वाग्भटालङ्कार-वृत्ति: खरतरगच्छीय आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य आचार्य जिनवधनसूरि (सन् १४०५-१४१९) ने 'वाग्भटालंकार' पर १०३५ श्लोक-परिमाण वृत्ति की रचना की है, जिसकी चार हस्तलिखित प्रतियां अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर में हैं, जिनमें से एक प्रति वि० सं०. १५३९ में और दूसरी वि० सं० १६९८ में लिखी गई है। ६. वाग्भटालङ्कार-वृत्तिः खरतरगच्छीय सकलचंद्र के शिष्य उपाध्याय समयसुंदरगणि ने 'वाग्भटालंकार' पर वि० सं० १६९२ में १६५० श्लोक-परिमाण वृत्ति की रचना की है जिसकी हस्तलिखित प्रति प्राप्त है। ७. वाग्भटालङ्कार-वृत्ति : मुनि क्षेमहंसगणि ने 'वाग्भटालंकार' पर 'समासान्वय' नामक टिप्पण की रचना की है। . १. देखिए-'भांडारकर रिपोर्ट सन् १८८३-८४, पृ० १५६, २७९. "इति श्रीखरतरगच्छप्रभुश्रीजिनप्रभु( भ)सूरिसंतान्य( नीय )पूज्य श्रीजिनतिलकसूरि-शिष्यश्रीराजहंसोपाध्यायविरचितायां श्रीवाग्भटालंकारटीकायां पञ्चमः परिच्छेदः।" इसकी हस्तलिखित प्रति वि० सं० १४८६ की भांगरकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में है। २. संवद विक्रमनृपतेः विधु-वसु-रस-शशिभिरविते । ज्ञानप्रमोदवाचकगणिभिरियं विरचिता वृत्तिः ॥ १. इसकी हस्तलिखित प्रति महमदाबाद के रेला भर में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002098
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, & Grammar
File Size12 MB
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