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________________ 'प्रास्ताविक ४१ वि० सं० ११०४ से १११४, रुग्णावस्था वि० सं० १११४ से १११७, आचार्य पद एवं टीकाओं का प्रारम्भ वि० सं० ११२० और स्वर्गवास वि० सं० ११३५ अथवा ११३९ में माना जाता हैं। पट्टावलियों में अभयदेवसरि का स्वर्गवास कपडवंज में वि० सं० १२३५ तथा मतान्तर से वि० सं० ११३९ में होने का उल्लेख है, जबकि प्रभावकचरित्र में केवल इतना ही उल्लेख है कि अभयदेवसूरि पाटन में कर्णराज के राज्य में स्वर्गवासो हुए । अभयदेवसूरिकृत आगमिक टोकाओं के संशोधन में उस समय पाटन में विराजित आगमिक परम्परा के विशेषज्ञ संघप्रमुख द्रोणाचार्य ने पूर्ण योगदान दिया था । द्रोणाचार्य के इस महान् ऋण को स्वयं अभयदेवसरि ने कृतज्ञतापूर्वक स्वोकार किया है । -स्थानांगवृत्ति : यह टीका स्थानांग के मूल सूत्रों पर है । यह शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है अपितु इसमें सूत्रसम्बद्ध प्रत्येक विषय का आवश्यक विश्लेषण भी है। दार्शनिक दृष्टि की झलक भी इसमें स्पष्ट दिखाई देती है। वृत्ति में कुछ संक्षिप्त कथानक भी हैं । वृत्ति के अन्त में आचार्य ने अपना परिचय देते हुए बताया है कि मैंने यह टीका अजितसिंहाचार्य के अन्तेवासो यशोदेवगणि को सहायता से पूरो को है । अपनी कृतियों को आद्योपान्त पढ़ कर आवश्यक संशोधन करने वाले द्रोणाचार्य का सादर नामोल्लेख करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि परम्परागत सत्सम्प्रदाय एवं सत्शास्त्रार्थ की हानि हो जाने तथा आगमों की अनेक वाचनाओं एवं पुस्तक की अशुद्धियों के कारण प्रस्तुत कार्य में अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है और यही कारण है कि इसमें अनेक प्रकार की त्रुटियाँ संभव है। विद्वान् पुरुषों को इनका संशोधन कर लेना चाहिए। वृत्ति का ग्रन्थमान १४२५० श्लोक प्रमाण है । रचना का समय वि० सं० ११२० एवं स्थान पाटन है। समवायांगवृत्ति : यह वृत्ति समवायांग के मूलपाठ पर है। विवेचन न अति संक्षिप्त है, न अति विस्तृत । यत्र-तत्र पाठान्तर भी उपलब्ध हैं। प्रस्तुत वृत्ति भी वि० सं० ११२० में ही पूर्ण हुई । इसका ग्रन्थमान ३५७५ श्लोकप्रमाण है । व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ति : यह टीका व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) के मूलपाठ पर है । व्याख्यान शब्दार्थप्रधान एवं संक्षिप्त है । यत्र-तत्र उद्धरण भी उपलब्ध हैं । पाठान्तरों एवं व्याख्याभेदों की भी प्रचुरता है । वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्य ने इस बात का निर्देश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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