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________________ ३६० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास समस्तवस्तुविस्तारे, व्यासर्पतैलवज्जले । जीयात् श्रीशासनं जैनं, धीदीपोद्दीप्तिवर्द्धनम् ॥२॥ यत्प्रभावादवाप्यन्ते, पदार्थाः कल्पनां विना। सा देवी संविदे नः स्तादस्तकल्पलतोपमा ।। ३ ।। व्याख्याकृतामखिलशास्त्रविशारदानां सूच्यग्रवेधकधियां शिवमस्तु तेषाम् । यैरत्र गाढतरगूढविचित्रसूत्र ___ ग्रंथिविभिद्य विहितोऽद्य ममापि गम्यः ॥ ४ ॥ अध्ययनानामेषां यदपि कृताश्चूर्णिवृत्तियः कृतिभिः । तदपि प्रवचनभक्तिस्त्वरयति मामत्र वृत्तिविधौ ॥ ५ ॥ मंगलविषयक परम्परागत चर्चा करने के बाद आचार्य ने क्रमशः प्रत्येक अध्ययन और उसकी नियुक्ति का विवेचन किया है । प्रथम अध्ययन की व्याख्या में नय का स्वरूप बताते हुए महामति (सिद्धसेन) को निम्न गाथा उद्धृत की है : तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी दव्वढिओ वि पज्जवणओ य सेसा वियप्पा सिं । अर्थात् तीर्थकर के वचनों का विचार करने के लिए मूल दो नय हैं : द्रव्यर्थिक और पर्यायाथिक । शेष नय इन्हीं के विकल्प हैं । वस्तु की नामरूपता सिद्ध करते हुए आचार्य ने भतृहरि का एक श्लोक उद्धृत किया है। तथा च पूज्याः', 'उक्तं च पूज्यः' आदि शब्दों के साथ विविध प्रसंगों पर विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई है। 'समरेसु अगारेसुं.......' ( अ० १, सू० २६) को वृत्ति में 'तथा च चूर्णिकृति' ऐसा कहते हुए वृत्तिकार ने चूणि का एक वाक्य उद्धृत किया है। आगे 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' ऐसा लिखते हुए नागार्जुनोय वाचनासम्मत गाथा भी उद्धृत की है।' नय को संख्या का विशेष विवेचन करते हुए आचार्य ने बताया है कि पूर्वविदों ने सकलनयसंग्राही सात सौ नयों का विधान किया है । उस समय एतद्विषयक 'सप्तशतारनयचक्र' नामक अध्ययन भी विद्यमान था। तत्संग्राहो विध्यादि बारह प्रकार के नयों का नयचक्र ( द्वादशारनयचक्र ) में प्रतिपादन किया गया है जो आज भी विद्यमान है : तथाहि-पूर्वविद्भिः १. प्रथम विभाग. पृ० २१ (१). २. वही. ३. पृ० २१ (२). ४. पृ० ५६ (२). ५. पृ० ६६ (१). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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