SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास । प्रायश्चित्ताहं अर्थात् प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैं : उभयतर, आत्मतर, परतर और अन्यतर। जो पुरुष तप करता हुआ दूसरों की सेवा भी कर सकता हो वह उभयतर है । जो केवल तप ही कर सकता है वह आत्मतर है । जो केवल आचार्य आदि की सेवा ही कर सकता है वह परतर है। जो तप और सेवा इन दोनों में से एक समय में किसी एक का ही सेवन कर सकता हो वह अन्यतर है। निकाचना आदि प्रायश्चित्तों का वर्णन करते हुए इस बात का प्रतिपादन "किया गया है कि निकाचना वस्तुतः आलोचना ही है। आलोचना आलोचनाह और आलोचक के बिना नहीं होती अतः आलोचनाह और आलोचक का विवेचन करना चाहिए। आलोचनाहं निरपलापी होता है तथा निम्नलिखित आठ विशेषणों से युक्त होता है : आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अपवीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिश्रावी। आलोचक निम्नलिखित दस विशेषणों से युक्त होता है : जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चरणसम्पन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी, और अपश्चात्तापी । इसी प्रकार भाष्यकार ने आलोचना के दोष, तद्विषयभूत द्रव्यादि, प्रायश्चित्तदान की विधि आदि का भी विवेचन किया है। परिहार आदि तपों का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने तपसहभावी सेवावैयावृत्य का स्वरूप-वर्णन किया है । वैयावृत्य के तीन भेद हैं : अनुशिष्टि, उपालम्भ और अनुग्रह । इन तीनों में से प्रत्येक के पुनः तोन भेद हैं : आत्मविषयक, परविषयक और उभयविषयक। इनका स्वरूप समझाने के लिए सुभद्रा, मृगावती आदि के उदाहरण भी दिये गये हैं। ___ मूल सूत्र में आने वाले 'पट्ठव'-'प्रस्थापना' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य कहते हैं कि प्रायश्चित्तप्रस्थापना दो प्रकार की होती है : एक और अनेक । संचयित प्रायश्चित्तप्रस्थापना नियमतः पाण्मासिकी होती है अतः वह एक प्रकार की ही है । शेष अनेक प्रकार की है। 'आरोपणा' पांच प्रकार की है : प्रस्थापनिका, स्थापिता, कृत्स्ना, अकृत्स्ना और हाडहडा । यह पाँच प्रकार की आरोपणा प्रायश्चित्त की है । आचार्य ने इन प्रकारों का स्वरूप बताते हुए हाडहडा का विशेष वर्णन किया है । १. गा० २९८-९. ३. गा० ३४१-३५३. ५. गा० ४१२. २. गा० ३३६-३४०. ४. गा० ३७४. ६. गा० ४१३-७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy