SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतसूत्र : श्रमण-श्रमणियों को रात्रि के समय अथवा विकाल में वस्त्रादिग्रहण नहीं कल्पता । इस नियम का विश्लेषण करते हुए भाष्यकार ने निम्नलिखित बातों का स्पष्टीकरण किया है : रात्रि में वस्त्रादि ग्रहण करने से लगने वाले दोष एवं प्रायश्चित्त; इस नियम से सम्बन्धित अपवाद; संयतभद्र, गृहिभद्र, संयतप्रान्त और गृहिप्रान्त चौरविषयक चतुर्भङ्गी; संयतभद्र-गृहिप्रान्त चौर द्वारा लूटे गये गृहस्थ को वस्त्रादि देने की विधि; गृहिभद्र-संयतप्रान्त चौर द्वारा श्रमण और श्रमणी इन दो में से कोई एक लूट लिया गया हो तो परस्पर वस्त्र आदान-प्रदान करने की विधि; श्रमण-गृहस्थ, श्रमण-श्रमणी, समनोज्ञ-अमनोज्ञ अथवा संविग्न-असंविग्न ये दोनों पक्ष लूट लिये गये हों उस समय एक दूसरे को वस्त्र आदान-प्रदान करने की विधि ।' हृताहृतिका-हरिताहृतिकाप्रकृतसूत्र : पहले हृत अर्थात् हरा गया हो और बाद में आहृत अर्थात् लाया गया हो उसे हृताहृत कहते हैं। हरित अर्थात् वनस्पति में आहृत अर्थात् प्रक्षिप्त को हरिताहृत कहते हैं । चोरों द्वारा जिस वस्त्र का पहले हरण किया गया हो और बाद में वापस कर दिया गया हो अथवा जिसे चुराकर वनस्पति आदि में फेंक दिया गया हो उसके ग्रहणसम्बन्धी नियमों पर प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में प्रकाश डाला गया है। प्रसंगवशात् मार्ग में आचार्य को गुप्त रखने को विधि और आवश्यकता का भी विवेचन किया गया है ।२ अध्वगमनप्रकृतसूत्र : श्रमण-श्रमणियों के लिए रात्रि में अथवा विकाल में अध्वगमन निषिद्ध है। अव पंथ और मार्ग भेद से दो प्रकार का है। जिसके बीच में ग्राम, नगर आदि कुछ भी न हों उसे पंथ कहते हैं। जो ग्रामानुग्राम की परंपरा से युक्त हो उसे मार्ग कहते हैं। रात्रि में मार्गरूप अध्वगमन करने से मिथ्यात्व, उड्डाह, सयमविराधना आदि अनेक दोष लगते है। पंथ दो प्रकार का होता है : छिन्नाध्वा और अछिन्नाध्वा । रात्रि के समय पंथगमन करने से भी अनेक दोष लगते हैं । अपवादरूप से रात्रिगमन की छूट है किन्तु उसके लिए अध्वोपयोगी उपकरणों का संग्रह तथा योग्य सार्थ का सहयोग आवश्यक है। सार्थ पाँच प्रकार के है : १. भंडी, २. बहिलक, ३. भारवह, ४. औदरिक और ५. कार्पटिक । इनमें से किस प्रकार के साथ के साथ श्रमण-श्रमणियों को जाना १. गा० २९६९-३०००. २. गा० ३००१-३०३७. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy