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________________ २१४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आपवादिक कारणों से वर्षाऋतु में विहार करने का प्रसंग उपस्थित होने पर विशेष यतनाओं के सेवन का विधान है।' निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को हेमन्त और ग्रीष्मऋतु के आठ महीनों में विहार करना चाहिए। इन महीनों में विहार करने से अनेक लाभ होते है तथा न करने से अनेक दोष लगते हैं। विहार करते हुए मार्ग में आने वाले मासकल्प के योग्य ग्राम-नगरादि क्षेत्रों को चैत्यवन्दनादि के निमित्त छोड़ कर चले जाने से अनेक दोष लगते हैं। हाँ, किन्हीं आपवादिक कारणों से वैसा करना पड़े तो उसमें कोई दोष नहीं है । वैराज्यप्रकृतसूत्रः ___ इस सूत्र की व्याख्या में यह बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निग्रंन्थियों को वैराज्य अर्थात् विरुद्धराज्य में पुनः पुनः गमनागमन नहीं करना चाहिए। इस व्याख्या में निम्न विषयों पर विचार किया गया है : वैराज्य, विरुद्धराज्य, सद्योगमन, सद्योआगमन, वैर आदि पद, वैराज्य के चार प्रकार ( अराजक, यौवराज्य, वैराज्य और राज्य ), वैराज्य–विरुद्धराज्य में आने-जाने से लगने वाले आत्मविराधना आदि दोष, वैराज्य-विरुद्धराज्य में गमनागमन से सम्बन्धित अपवाद और यतनाएं । अवग्रहप्रकृतसूत्र: प्रथम अवग्रहसूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार कहते है कि भिक्षाचर्या के लिए गए हुए निर्ग्रन्थ से यदि गृहपति वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि के लिए प्रार्थना करे तो उसे चाहिए कि उस उपकरण को लेकर आचार्य के समक्ष प्रस्तुत करे और आचार्य की आज्ञा लेकर ही उसे रखे अथवा काम में ले। वस्त्र दो प्रकार का है : याचनावस्त्र और निमंत्रणावस्त्र । याचनावस्त्र का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। निमंत्रणावस्त्र का स्वरूप वर्णन करते हुए आचार्य ने निम्नोक्त बातों का स्पष्टीकरण किया है : निमंत्रणावस्त्र सम्बन्धी सामाचारी, उससे विरुद्ध आचरण करने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, निमंत्रणावस्र की शुद्धता का स्वरूप, गृहीत वस्त्र का स्वामित्व आदि । ____ द्वितीय अवग्रहसूत्र की व्याख्या में बताया गया है कि स्थंडिलभूमि आदि के लिए जाते समय यदि कोई निर्ग्रन्थ से वस्त्रादि की प्रार्थना करे तो उसे प्राप्त १. गा० २७३२-२७४७. ३. गा० २७५९-२७९१. ५. गा० २७९२-२८१३. २. गा० २७४८-२७५८. ४. गा० ६०३-६४८. Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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