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________________ १८४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ये सात और सात इनके प्रतिपक्षी-इस प्रकार चौदह भेद-पूर्वक श्रुत का विचार करना चाहिए। विरताविरति, संवृतासंवृत, बालपण्डित, देशकदेशविरति, अणुधर्म, अगारधर्म आदि देशविरति सामायिक के निरुक्त--पर्याय हैं। सामायिक, सामयिक, सम्यग्वाद, समास, संक्षेप, अनवद्य, परिज्ञा, प्रत्याख्यान-ये आठ सर्वविरति सामायिक के निरुक्त-पर्याय हैं। यहाँ तक सामायिक के उपोद्घात का अधिकार है। नमस्कारनियुक्ति सामायिक के इस सुविस्तृत उपोद्घात को समाप्ति के बाद भाष्यकार ने सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का विस्तृत व्याख्यान किया है। नमस्कार (अन्तमंगल रूप) की चर्चा करते हुए कहा गया है कि उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल-इन ग्यारह द्वारों से नमस्कार का व्याख्यान करना चाहिए ।२ भाष्यकार ने इन सभी द्वारों का बहुत विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। इस विवेचन में भी निक्षेपपद्धति का आश्रय लिया गया है जिसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, भेद, सम्बन्ध, काल, स्वामी आदि अनेक प्रभेदों का समावेश किया गया है। प्रत्येक द्वार के व्याख्यान में यथासम्भव नयदृष्टि का आधार भी लिया गया है । अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को नमस्कार क्यों करना चाहिए, इसका युक्तियुक्त विचार किया गया है। राग, द्वेष, कषाय आदि दोषों की उत्पत्ति आदि का भी संक्षिप्त विवेचन किया गया है। सिद्ध के स्वरूप का वर्णन करते समय आचार्य ने कर्मस्थिति तथा समुद्घात की प्रक्रिया का भी वर्णन किया है। शैलेशी अवस्था का स्वरूप बताते हुए शुक्लध्यान आदि पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है । सिद्ध को साकार उपयोग होता है अथवा निराकार, इसकी चर्चा करते हुए भाष्यकार ने केवल. ज्ञान और केवलदर्शन के भेद और अभेद का विचार किया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं या क्रमशः, इस प्रश्न पर आगमिक मान्यता के अनुसार विचार करते हुए इस मत की पुष्टि की है कि केवलो को एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते ।४ सिद्धिगमनक्रिया का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने अलाबु, एरण्डफल, अग्निशिखा, शर आदि दृष्टान्तों का स्पष्टीकरण तथा विविध आक्षेपों का परिहार किया है। सिद्धसम्बन्धी अन्य आवश्यक बातों की जानकारी के साथ सिद्ध नमस्कार का अधिकार समाप्त किया गया है। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय और साधुनमस्कार का विवेचन किया गया है ।६ नमस्कार के प्रयोजन, फल आदि द्वारों का व्याख्यान करते हुए भाष्यकार ने परिणाम-विशुद्धि का १. गा० २७८४-७. २. गा० २८०५. ३. गा० २८०६-३०८८. ४. गा० ३०८९-३१३५. ५. गा० ३१४०-३१८८. ६. गा० ३१८९-३२००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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