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________________ १७४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास निह्नववाद : अपने अभिनिवेश के कारण आगम-प्रतिपादित तत्त्व का परंपरा से विरुद्ध अर्थ करने वाला निह्नव की कोटि में आता है। जैनदृष्टि से निह्नव मिथ्यादृष्टि का ही एक प्रकार है । अभिनिवेश के बिना होने वाले सूत्रार्थ के विवाद के कारण कोई निह्नव नहीं कहलाता क्योंकि इस प्रकार के विवाद का लक्ष्य सम्यक अर्थ निर्णय है, न कि अपने अभिनिवेश का मिथ्या पोषण । सामान्य मिथ्यात्वी और निह्नव में यह भेद है कि सामान्य मिथ्यात्वी जिनप्रवचन को ही नहीं मानता अथवा मिथ्या मानता है जबकि निह्वब उसके किसी एक पक्ष का अपने अभिनिवेश के कारण परंपरा से विरुद्ध अर्थ करता है तथा शेष पक्षों को परंपरा के अनुसार ही स्वीकार करता है। इस प्रकार निह्नव वास्तव में जैनपरंपरा के भीतर ही एक नया संप्रदाय खड़ा कर देता है । जिनभद्र आदि पीछे के आचार्यों ने तो दिगम्बर संप्रदाय को भी निलव-कोटि में डाल दिया है जिसका संबंध शिवभूति बोटिक निह्नव से है। भाष्यकार जिनभद्र ने जमालि आदि आठ निह्नवों का उल्लेख किया है तथा संक्षेप में उनके मतों का भी वर्णन किया है। प्रथम निह्नव: प्रथम निह्नव का नाम जमालि है। उसने बहुरत मत का प्ररूपण किया। उसका जीवन-वृत्त इस प्रकार है : क्षत्रियकुमार जमालि ने वैराग उत्पन्न होने पर पांच सौ पुरुषों के साथ महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की तथा वह उनका आचार्य हुआ। जिस समय वह श्रावस्ती के तैन्दुक उद्यान में ठहरा हुआ था उस समय उसे कोई रोग हो गया। उसने अपने एक शिष्य से बिस्तर बिछाने के लिए कहा । कुछ देर बाद उसने उस शिष्य से पूछा- “बिस्तर हो गया ?" उसने बिछाते-बिछाते ही उत्तर दिया-"हो गया है ।" जमालि सोने के लिए खड़ा हुआ। उसने जाकर देखा तो बिस्तर अभी बिछाया ही जा रहा था। यह देख कर उसने सोचा--भगवान् महावीर जो ‘क्रियमाणं कृतम्' अर्थात् 'किया जाने वाला कर दिया गया' का कथन करते हैं वह मिथ्या है । यदि 'क्रियमाण' ( किया जाने वाला ) 'कृत' ( कर दिया गया ) होता तो मैं इस बिस्तर पर इसो समय सो सकता किन्तु बात ऐसी नहीं है। अतः महावीर का यह सिद्धान्त कि 'क्रियामाण कृत है' झूठा है। दूसरे साधुओं ने उसे "क्रियमाणं कृतम्' का वास्तविक अर्थ समझाया किन्तु उसके मन में किसी को बात नहीं बैठी । उसने उसी समय से अपने विरोधो सिद्धान्त 'बहुरत' का प्रतिपादन प्रारंभ कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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