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________________ औपपातिक ३३ तेरासिय— ये लोग जीव, अजीव और नोजीव रूप त्रिराशि को मानते हैं। रोहत इस मत के प्रवर्तक हैं । ' अबद्धिय- - इस मत के अनुसार जीव अपने कर्मों से बद्ध नहीं हैं। गोष्ठामाहिल इस मत के प्रवर्तक हैं। सूत्र ४२-४३ में केवलिसमुद्धात तथा सिद्धिक्षेत्र और ईषत्प्राग्भार पृथ्वी का वर्णन किया गया है । १. रोहगुप्त सडूलय नाम से भी कहे जाते थे । ये वैशेषिक मत के प्रवर्तक थे । महावीर के मोक्षगमन के ५४४ वर्ष बाद इस मत की उत्पत्ति हुई । कल्पसूत्र (८, पृ० २२८ अ ) के अनुसार तेरासिय आर्य महागिरि के शिष्य थे, तथा समवायांग की टीका ( २२, पृ० ३९ अ ) के अनुसार वे गोशाल - प्रतिपादित मत को मानते थे । २. इस मत की उत्पत्ति महावीर के मोक्षगमन के ५८४ वर्ष बाद मानी जाती है । विशेष के लिए देखिये - स्थानांग ( ५८७ ); आवश्यक नियुक्ति ( ७७९ आदि), भाष्य ( १२५ आदि), चूर्णि ( पृ० ४१६ आदि ); उत्तराध्ययनटीका ( ३, पृ० ६८ अ-७५ ); भगवती ( ९-३३ ); समवायांग ( २२ ), तथा स्थानाङ्ग - समवायांग ( गुजराती ), पृ० ३२७ आदि । Jain Education International axe For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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