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________________ २२४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास चतुर्थ प्रतिमा में स्थित श्रमणोपासक चतुर्दशी आदि के दिन प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का पूर्णतया पालन करता है किन्तु 'एकरात्रिकी' उपासक प्रतिमा का सम्यक आराधन नहीं करता। पञ्चम प्रतिमा में स्थित श्रमणोपासक 'एकरात्रिकी' उपासक-प्रतिमा का सम्यक् पालन करता है, स्नान नहीं करता, रात्रिभोजन को त्याग देता है, धोती की लांग नहीं लगाता (मुकुलीकृत-मउलिकड), दिन में ब्रह्मचारी रहता है एवं रात्रि में मैथुन का मर्यादापूर्वक सेवन करता है। इस प्रकार के उपासक को कमसे कम एक-दो-तीन दिन एवं अधिक-से-अधिक पाँच मास तक प्रस्तुत प्रतिमा में स्थित रहना चाहिए। षष्ठ प्रतिमा में स्थित उपासक दिन की भाँति रात्रि में भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है किन्तु बुद्धिपूर्वक सचित्त आहार का परित्याग नहीं करता। इस प्रतिमा की अधिकतम समय-मर्यादा छः मास है । सप्तम प्रतिमा को ग्रहण करने वाला श्रावक सचित्त आहार का परित्याग कर देता है किन्तु आरम्भ ( कृषि आदि व्यापार ) का त्याग नहीं करता । इस प्रतिमा की अधिकतम समय-अवधि सात मास है। अष्टम प्रतिमाधारी स्वयं तो आरम्भ का परित्याग कर देता है किन्तु दूसरों से आरम्भ कराने का परित्याग नहीं कर सकता। इस प्रतिमा की उत्कृष्ट अवधि आठ मास है। नवम प्रतिमा को धारण करने वाला श्रमणोपासक आरम्भ करने और कराने का परित्याग कर देता है किन्तु उद्दिष्ट भक्त अर्थात् अपने निमित्त से बने हुए भोजन का परित्याग नहीं करता। इस प्रतिमा की उत्कृष्ट अवधि नौ मास है। - दशम उपासक प्रतिमा को ग्रहण करने वाला उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग कर देता है एवं उस्तरे (क्षुर) से मुण्डित होता हुआ शिखा धारण करता है। जब उसे कोई एक या अनेक बार बुलाता है तब वह दो ही उत्तर देता है । जानने पर वह कहता है कि मैं यह बात जानता हूँ । न जानने पर उसका उत्तर होता है कि मैं इस बात को नहीं जानता । इस प्रतिमा की उत्कृष्ट स्थिति दस मास की कही गई है। एकादश उपासक-प्रतिमा में स्थित श्रावक बालों का उस्तरे से मुण्डन कराता है अथवा हाथ से लुचन करता है। साधु का आचार एवं भाण्डोपकरण ( बर्तन आदि ) ग्रहण कर मुनिवेश में निर्ग्रन्थधर्म का पालन करता हुआ विचरता है ।। 1. रात्रि में कायोत्सर्ग अवस्था में ध्यान करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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