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________________ ( ४६ ) में पोत्थकम्म को स्थापना आवश्यक कहा है । इसी प्रकार श्रुत के विषय में स्थापना-श्रुत में भी पोत्थकम्म को स्थापना-श्रुत कहा है ( अनुयोगद्वार सूत्र ३१ पृ० ३२ अ)। द्रव्यश्रु त के भेद रूप से ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर के अतिरिक्त जो द्रव्यश्रत का भेद है उसमें स्पष्ट रूप से लिखा है कि "पत्तयपोहयलिहिय" ( सूत्र ३७ ) उस पद की टीका में अनुयोगद्वार के टीकाकार ने लिखा है-'पत्रकाणि तलतास्यादिसंबन्धीनि, तत्संघातनिष्पन्नास्तु पुस्तकाः, ततश्च पत्रकाणि च पुस्तकाश्च, तेषु लिखितं पत्रकपुस्तकलिखितम् । अथवा 'पोत्थय'ति पोतं वस्त्रं पत्रकाणि च पोतं च, तेष लिखितं पत्रकपोतलिखितं ज्ञशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतम् । अत्र च पत्रकादिलिखितस्य श्रुतस्य भावश्रुतकारणत्वात् द्रव्यश्रुतत्वमेव अवसेयम् ।" पृ० ३४ । ___ इस श्रुतचर्चा में अनु योगद्वार को भावश्रुतरूप से कौन सा श्रुत विवक्षित है यह भी आगे की चर्चा से स्पष्ट हो जाता है। आगे लोकोत्तर नोआगम भावश्रत के भेद में तीर्थंकरप्रणीत द्वादशांग गणिपिटक आचार आदि को भावश्रुत में गिना है। इससे शंका को कोई स्थान नहीं रहना चाहिए और यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अनुयोगद्वार के समय में आचार आदि अंग पुस्तकरूप में लिखे जाते थे। अंग आगम पुस्तक में लिखे जाते थे किन्तु पठन-पाठन प्रणाली में तो गुरुमुख से ही आगम की वाचना लेनी चाहिए यह नियम था। अन्यथा करना अच्छा नहीं समझा जाता था। अतएव प्रथम गुरुमुख से पढ़ कर ही पुस्तक में लेखन या उसका उपयोग किया जाता होगा ऐसा अनुमान होता है । विशेषावश्यकभाष्य में वाचना के शिक्षित आदि गुणों के वर्णन में आचार्य जिनभद्र ने 'गुरुवायणोवगयं'-गुरुवाचनोपगत का स्पष्टीकरण किया है कि “ण चोरितं पोत्थयातोवा"-गा० ८५२ । उसकी स्वकृत व्याख्या में लिखा है कि “गुरुनिर्वाचितम्, न चौर्यात् कर्णाघाटितं, स्वतंत्रेण वाऽधीतं पुस्तकात्"-विशेषा० स्वोपज्ञ व्याख्या गा० ८५२ । तात्पर्य यह है कि गुरु किसी अन्य को पढ़ाते हों और उसे चोरो से सुनकर या पुस्तक से श्रुत का ज्ञान लेना यह उचित नहीं है । वह तो १. अनुयोग की टीका में लिखा है-"अथवा पोत्थं पुस्तकं सच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते तत्र कर्म तन्मध्ये वतिकालिखितं रूपकमित्यर्थः । अथवा पोत्थं ताड पत्रादि तत्र कर्म तच्छेदनिष्पन्न रूपकम्" पृ० १३ अ । २. अनुयोगद्वार-सूत्र ४२, पृ० ३७ अ । . ३. अनुयोगद्वार में शिक्षित, स्थित, जित आदि गुणों का निर्देश है उनकी व्याख्या जिनभद्र ने की है-अनु० सू० १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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