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________________ ( २९ ) ही यह सुझ हो, जब उन्होंने विधिमार्गप्रपा लिखी । जिनप्रभ का लेखनकाल सुदीर्घ था यह उनके विविधतीर्थकल्प की रचना से पता लगता है । इसकी रचना उन्होंने ई० १२७० में शुरू की और ई० १३३२ में इसे पूर्ण किया' इसी बीच उन्होंने १३०६ ई० में विधिमार्गप्रपा लिखी है । स्तवन सम्भवतः इससे प्राचीन होगा | उपलब्ध आगमों और उनको टीकाओं का परिमाण : समवाय और नन्दीसूत्र में अंगों की जो पदसंख्या दी है उसमें पद से क्या अभिप्रेत है यह ठीक रूप से ज्ञात नहीं होता । और उपलब्ध आगमों से पदसंख्या का मेल भी नहीं है । दिगम्बर षट्खण्डागम में गणित के आधार पर स्पष्टीकरण करने का जो प्रयत्न है वह भी काल्पनिक ही है, तथ्य के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं दीखता । 1 अतएव अब उपलब्ध आगमों का क्या परिमाण है इसकी चर्चा की जाती ये संख्याएँ हस्वप्रतियों में ग्रन्थाग्ररूप से निर्दिष्ट हुई हैं । उसका तात्पर्य होता है - ३२ अक्षरों के श्लोकों से । लिपिकार अपना लेखन पारिश्रमिक लेने के लिए गिनकर प्रायः अन्त में यह संख्या देते हैं । कभी स्वयं ग्रन्थकार भी इस संख्या का निर्देश करते हैं यहाँ दी जानेवाली संख्याएँ, भांडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट के वोल्युम १७ के १-३ भागों में आगमों और उनकी टीकाओं की हस्त प्रतियों की जो सूची छपी है उसके आधार से हैं—इससे दो कार्य सिद्ध होंगे - श्लोकसंख्या के बोध के अलावा किस आगम की कितनी टीकाएँ लिखी गईं इसका भी पता लगेगा । । १. अंग ( १ ) आचारांग 37 Jain Education International "" " 31 13 " 11 २६४४, २६५४ नियुक्ति ४५० चू ८७५० वृत्ति १२३०० दीपिका ( १ ) ९०००, १००००, १५००० (२) ९००० ," अवचूरि पर्याय १. जै० सा० सं० इ०, पृ० ४१६. २. जै० सा० इ० पूर्वपीठिका, पृ० ६२१; षट्खंडागम, पु० १३, पृ० २४७-२५४. ३. कभी-कभी धूर्त लिपिकार संख्या गलत भी लिख देते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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