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________________ ( २४ ) किन्तु साम्प्रतकाल में श्वेताम्बरों में आगमों का जो वर्गीकरण प्रसिद्ध है वह कब शुरू हुआ, या किसने शुरू किया - यह जानने का निश्चित साधन उपस्थित नहीं है । स्वाध्याय की काल तक अंग और उपांग श्रीचन्द्र आचार्य ( लेखनकाल ई० १११२ से प्रारम्भ ) ने 'सुखबोधा समाचारी' की रचना की है। उसमें उन्होंने आगम के तपोविधि का जो वर्णन किया है उससे पता चलता है कि उनके की व्यवस्था अर्थात् अमुक अङ्ग का अमुक उपांग ऐसी व्यवस्था बन चुकी थी । पठनक्रम में सर्वप्रथम आवश्यक सूत्र तदनन्तर दशवैकालिक और उत्तराध्ययन के बाद आचार आदि अंग पढ़े जाते थे। सभी अंग एक ही साथ क्रम से पढ़े जाते थे, ऐसा प्रतीत नहीं होता । प्रथम चार आचारांग से समवायांग तक पढ़ने के बाद निसीह, जीयकप्प, पंचकप्प, कप्प, ववहार और दसा' पढ़े जाते थे । निसीह आदि की यहाँ छेदसंज्ञा का उल्लेख नहीं है किन्तु इन सबको एक साथ रखा है यह उनके एक वर्ग की सूचना तो देता ही है । इन छेदग्रन्थों के अध्ययन के बाद नायधम्मकहा ( छठा अंग ), उवासगदसा, अंतगडदसा, अणुत्तरोववाइयदसा, पण्हावागरण और विपाक इन अंगों की वाचना होती थी । विवाग के बाद एक पंक्ति में भगवई का उल्लेख है किन्तु यह प्रक्षिप्त हो— ऐसा लगता है क्योंकि वहाँ कुछ भी विवरण नहीं है ( पृ० ३१ ) । इसका विशेष वर्णन आगे चलकर "गणिजोगेसु य पंचमंगं विवाहपन्नत्ति" ( पृ० ३१ ) इन शब्दों से शुरू होता है । विपाक के बाद उवांग की वाचना का उल्लेख है । वह इस प्रकार है— उववाई, रायपसेणइय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरपन्नत्ति, जंबूदीवपन्नति, चन्दन्नति । तीन पन्नत्तियों के विषय में उल्लेख है कि "तओ पन्नतिओ कालिआओ संघट्टच कीरइ" ( पृ० ३२ ) । तात्पर्य यह जान पड़ता है कि इन तीनों की तत् तत् अंग की वाचना के साथ भी वाचना की जा सकती है । शेष पाँच अंगों के लिए लिखा है कि "सेसाण पंचण्हमंगाणं मयंतरेण निरयावलिया सुखंधो उवंगं ।" ( पृ० ३२ ) । इस निरयावलिया के पांच वर्ग हैंनिरयावलिया, कप्पवडिसिया, पुफिया, पुप्फचूलिया और वहीदसा । इसके बाद 'इयाणि पन्नगा' ( पृ० ३२ ) इस उल्लेख के साथ नन्दी, अनुयोगद्वार, विन्दत्थ, तंदुलवेयालिय, चंदावेज्झय, आउरपच्चक्खाण और गणिविज्जा - १. सुखबोधा सामाचारी में 'निसीहं सम्मत्तं' ऐसा उल्लेख है और तदनन्तर जीप आदि से सम्बन्धित पाठ के अन्त में 'कप्पववहारदसासुयक्खंधो सम्मत्तो'ऐसा उल्लेख है । अतएव जीयकप्प और पंचकप्प की स्थिति सन्दिग्ध बनती है - पृ० ३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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