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________________ वृत्तियों की दृष्टि से हीन ही हैं। मानवसुलभ क्रोध, राग, द्वेष आदि वृत्तियों का वैदिक देवों में साम्राज्य है तो जैनों के आराध्य में इन वृत्तियों का अभाव ही है। वैदिकों के इन देवों की पूज्यता कोई आध्यात्मिक शक्ति के कारण नहीं किन्तु नाना प्रकार से अनुग्रह और निग्रह शक्ति के कारण है जब कि जैनों के आराध्य ऐसी कोई शक्ति के कारण पूज्य नहीं किन्तु वीतरागता के कारण आराध्य हैं । आराधक में वीतराग के प्रति जो आदर है वह उसे उनकी पूजा में प्रेरित करता है, जब कि वैदिक देवों का डर आराधक के यज्ञ का कारण है । वैदिकों ने भूदेवों की कल्पना तो की किन्तु वे कालक्रम से स्वार्थी हो गये थे । उनको अपनी पुरोहिताई की रक्षा करनी थी। किन्तु जैनों के भूदेव वीतराग मानव के रूप में कल्पित है। उन्हें यज्ञादि करके कमाई का कोई साधन जुटाना नहीं था। धार्मिक कर्मकाण्ड में वैदिकों में यज्ञ मुख्य था जो अधिकांश बिना हिंसा या पशु-वध के पूर्ण नहीं होता था जब कि जैनधर्म में क्रियाकाण्ड तपस्यारूप है-अनशन और ध्यानरूप है जिसमें हिंसा का नाम नहीं है। ये वैदिक यज्ञ देवों को प्रसन्न करने के लिए किये जाते थे जब कि जैनों में अपनी आत्मा के उत्कर्ष के लिए ही धार्मिक अनुष्ठान होते थे। उसमें किसी देव को प्रसन्न करने की बात का कोई स्थान नहीं था। उनके देव तो वोतराग होते थे जो प्रसन्न भी नहीं होते और अप्रसन्न भी नहीं होते । वे तो केवल अनुकरणीय के रूप में आराध्य थे। वैदिकों ने नाना प्रकार के इन्द्रादि देवों की कल्पना कर रखी थी, जो तीनों लोक में थे और उनका वर्ग मनुष्य वर्ग से भिन्न था और मनुष्य के लिए आराध्य था। किन्तु जैनों ने जो एक वर्ग के रूप में देवों की कल्पना की है वे मानव वर्ग से पृथग्वर्ग होते हुए भी उनका वह वर्ग सब मनु यों के लिए आराध्य कोटि में नहीं है । मनुष्य देव की पूजा भौतिक उन्नति के लिए भले करे किन्तु आत्मिक उन्नति के लिए तो उससे कोई लाभ नहीं ऐसा मन्तव्य जैनधर्म का है । अतएव ऐसे हो वीतराग मनुष्यों की कल्पना जैनधर्म ने की, जो देवों के भी आराध्य हैं। देव भी उस मनुष्य की सेवा करते हैं। सारांश यह है कि देव की नहीं किन्तु मानव की प्रतिष्ठा बढाने में जैनधर्म अग्रसर है । देव या ईश्वर इस विश्व का निर्माता या नियन्ता है, ऐसी कल्पना वैदिकों की देखी जाती है। उसके स्थान में जैनों का सिद्धान्त है कि सृष्टि तो अनादि काल से चली आती है, उसका नियन्त्रण या सर्जन प्राणियों के कर्म से होता है, किसी अन्य कारण से नहीं । विश्व के मूल में कोई एक ही तत्त्व होना जरूरी हैइस विषय में वैदिक निष्ठा देखी जाय तो विविध प्रकार की है। अर्थात् वह एक तत्व क्या है, इस विषय में नाना मत है किन्तु ये सभी मत इस बात में तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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