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________________ ८८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गया है । इनसे अनुमान होता है कि इन ग्रन्थों के निर्माताओं के सामने दृष्टिवाद के एक अंशरूप परिकर्म का कोई भाग अवश्य रहा होगा, चाहे वह स्मृतिरूप में ही क्यों न हो। जिस प्रकार विशेषावश्यकभाष्यकार अपने भाष्य में अनेक स्थानों पर दृष्टिवाद के एक अंशरूप पूर्वगत गाथा' का निर्देश करते हैं उसी प्रकार ये ग्रन्थकार 'परिकर्म' का निर्देश करते हैं। जिन्होंने आगमों को ग्रन्थबद्ध किया है उन्होंने पहले से चली आने वाली कंठाग्न आगम-परम्परा को ध्यान में रखते हुए उनका ठीक-ठीक संकलन करके माथुरी वाचना पुस्तकारुढ की है । इसी प्रकार अचेलक परम्परा के ग्रन्थकारों ने भी उनके सामने जो आगम विद्यमान थे उनका अवलम्बन लेकर नया साहित्य तैयार किया है । इस प्रकार दोनों परम्पराओं के ग्रन्थ समानरूप से प्रामाण्यप्रतिष्ठित हैं। अचेलक परम्परा में अंगविषयक उल्लेख : __ अचेलक परम्परा में अंगविषयक जो सामग्री उपलब्ध है इसमें केवल अंगों के नामों का, अंगों के विषयों का व अंगों के पदपरिणाम का उल्लेख है । अकलंककृत राजवार्तिक में अंतकृद्दशा तथा अनुत्तरौपपातिकदशा नामक दो अंगों के अध्ययनोंप्रकरणों के नामों का भी उल्लेख मिलता है, यद्यपि इन नामों के अनुसार अध्ययन वर्तमान अन्तकृद्दशा तथा अनुत्तरौपातिकदशा में उपलब्ध नहीं है। प्रतीत होता है, राजवातिककार के सामने ये दोनों सूत्र अन्य वाचना वाले मौजूद रहे होंगे। स्थानांग नामक तृतीय अंग में उक्त दोनों अंगों के अध्ययनों के जो नाम बताये गये हैं, उनसे राजवार्तिक-निर्दिष्ट नाम विशेषतः मिलते हुए हैं । ऐसी स्थिति में यह भी कहा जा सकता है कि राजवातिकार और स्थानांगसूत्रकार के समक्ष एक ही वाचना के ये सूत्र रहे होंगे अथवा राजवार्तिकार ने स्थानांग में गृहीत अन्य वाचना को प्रमाणभूत मान कर ये नाम दिये होंगे। राजवार्तिक के ही समान धवला, जयधवला, अंगपण्णत्ति आदि में भी वैसे ही नाम उपलब्ध हैं। ___अचेलक परम्परा के प्रतिक्रमण सूत्र के मूल पाठ में किन्हीं-किन्हीं अंगों के अध्ययनों की संख्या बताई गई है। इस संख्या में और सचेलक परम्परा में प्रसिद्ध संख्या में विशेष अन्तर नहीं है। इस प्रतिक्रमण सूत्र की प्रभाचन्द्रीय वृत्ति में इन अध्ययनों के नाम तथा उनका सविस्तार परिचय आता है । ये नाम सचेलक परम्परा में उपलब्ध नामों के साथ हूबहू मिलते हैं। कहीं-कहीं अक्षरान्तर भले ही हो गया हो किन्तु भाव में कोई अन्तर नहीं है। इसके अतिरिक्त अपराजितसूरिकृत दशवकालिकवृत्ति का उल्लेख उनकी अपनी मूलाराधना को वृत्ति में आता है । यह दशवैकालिकवृत्ति इस समय अनुपलब्ध है। सम्भव है, इन अपराजितसूरि १. वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार, गा० १२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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