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________________ ४.१८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास का प्रयोग कुशलतापूर्वक हुआ है। आप तुलसीयुग के कवि थे। अत: देश में व्याप्त भक्तिधारा से अछते नहीं थे। ये सं० १६०१ से सं० १६४० की अवधि के सशक्त लोककवि थे। ये केशव के समकालिक हैं और दोनों में कहीं-कहीं साम्य भी मिलता है जैसे पोदनपुर का वर्णन करते हुए कवि कहता है मारण नाम न सुनजे जहाँ, खेलत सारि मारि जे तहाँ। हाथ पाइ नवि छेदै कान, सुभद्र खाय वे छेदे पान । बंधन नाइ फूल बंधेर, वधन कोइ किसहा न देइ । कामणि नैणकाजल होइ, हियडै मनुस न कालो होय । इत्यादि मिलाइये केशव की इस पंक्ति सेभूलन ही की जहाँ अधोगति केशव गाई, ___होम हुताशन धूम नगर एक मलिनाई। यह भक्तिकाल का प्रभाव था कि कवि की रचनाओं में प्रायः भक्तिरस की छटा भी दिखाई देती है। इनके सभी पक्षों और विशेषताओं पर विचार किया जाय तो 'बाढ़ कथा पार नहिं लहऊँ' की उक्ति सार्थक होती है अतः यह विवरण यहीं समाप्त किया जाता है।' पांडे रूपचंद -रूपचंद नामक कई विद्वानों की चर्चा १७ वीं शताब्दी में प्राप्त होती है। नाथूराम प्रेमी ने बनारसीदास कृत 'अर्द्ध कथानक' के संशोधित संस्करण में रूपचंद नामक चार व्यक्तियों का उल्लेख किया है। इनमें से प्रधान रूपचंद वे हैं जिनके साथ बैठकर कवि बनारसीदास अध्यात्मचर्चा किया करते थे। दूसरे वे हैं जिनसे गोम्मटसार जीवकाण्ड पढ़कर उनका मिथ्यात्व दूर हुआ था। तीसरे वे हैं जिन्होंने संस्कृत में 'समवशरण पाठ' की रचना की है और चौथे बे हैं जिन्होंने नाटक समयसार की भाषा टीका लिखी है। इनमें से दसरे और तीसरे रूपचन्द एक ही व्यक्ति हैं और यही प्रस्तुत पांडे रूपचंद हैं। १. देखिये डॉ० प्रेम सागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि पृ० ११०-११५ और डॉ० हरीश-जैन गुर्जर कविओं की हिन्दी कविता पृ० ९०-९२; श्री अगरचन्द नाहटा-परमारा पृ० ९१-९२ २. नाथूराम प्रेमी-अर्द्धकथानक पृ० ८९-९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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