SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृष्ठभूमि ३९ व्यवसायी ज्ञान' किया था। इन्होंने उसमें 'अपूर्व' पदकी वद्धि करके स्वापर्वार्थव्यवसायी ज्ञानको प्रमाण माना। अकलंकदेवने भो अविसंवादी ज्ञानको प्रमाण मानते हुए उसे 'अनधिगतार्थग्राहो' कहा था। माणिक्यनन्दिने भी उसीको ध्यानमें रखकर प्रमाणके लक्षणमें 'अपूर्व' पदका समावेश किया जान पड़ता है। माणिक्यनन्दिने अपने सूत्र-ग्रन्थको केवल न्यायशास्त्रकी दष्टिसे संकलित किया है, अतः उसमें जैन आगमिक परम्परासे सम्बन्ध रखनेवाले मतिज्ञानके भेदोंका समावेश नहीं किया और आगमिक श्रृतप्रमाणको आगम नाम देकर, जैसा अकलंकदेवने अपने न्यायविनिश्चयमें किया है, परोक्ष प्रमाणके भेदोंमें सम्मिलित कर दिया। इसके निर्मागमें माणिक्यनन्दिने मुख्यरूपसे अकलंकदेवकृत ग्रन्थोंका, उनमें भी सवृत्ति लघीयस्त्रयका सहयोग तो लिया ही है सम्भवतया बौद्धाचार्य दिङ्नाग और धर्मकीतिके सूत्र-ग्रन्थोंसे भी सहायता ली है। परीक्षामुखके सूत्रोंकी तुलना दिङ्नागके न्यायप्रवेश और धर्मकीतिको न्यायबिन्दुके साथ करनेसे यह बात स्पष्ट भी हो जाती है कि इस प्रकारके न्याय-शास्त्रविषयक सूत्र ग्रन्थका निर्माण करनेकी प्रेरणा भी उन्हींसे प्राप्त हुई है। इस सूत्रग्रन्थके निर्माणसे न्यायविषयक जो विविध मन्तव्य अकलंक तथा विद्यानन्दके ग्रन्थोंमें इतस्ततः विस्तृत थे, उन सबका क्रमवार एक संकलन हो जानेसे न्यायशास्त्र के अभ्यासियोंके लिए सुगमता हो गयी और जैन न्यायके भावी लेखकोंके लिए मार्गदर्शन भी हुआ । परीक्षामुखके निर्माणके पश्चात् ही माणिक्यनन्दिके शिष्य तार्किक प्रभाचन्द्रने उसपर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामका तर्कपूर्ण महान् व्याख्या ग्रन्थ रचा और श्वेताम्बर परम्पराके आचार्य वादिदेव सूरिने प्रमाणनयतत्त्वालोक नामक सूत्रग्रन्थ रचा, तथा हेमचन्द्रने प्रमाणमीमांसाके सूत्रोंकी रचना की। इस तरह इस कृतिसे जैनन्यायके विकासमें बहुत सहायता मिली। आचार्य प्रभाचन्द्र आचार्य प्रभाचन्द्र ईसाकी दसवों-ग्यारहवीं शताब्दोके विद्वान् थे। श्रवणबेल्गोलाके शिलालेख संख्या ४० ( ६४ ) में इन्हें प्रथित तर्क ग्रन्थकार लिखा है । इन्होंने परीक्षामुख सूत्रपर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक तथा अकलंकदेवके लघीयस्त्रयपर न्यायकुमुदचन्द्र नामक बृहत्काय टीकाग्रन्थ रचे हैं। अपने इन टोका-ग्रन्थोंमें प्रभाचन्द्रने मूल ग्रन्थको व्याख्याके साथ मूलग्रन्थसे सम्बद्ध विषयों१. प्रमाणमविसंवादिज्ञानम् अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् । अष्टश०, अष्टसहस्री, पृ० १७५ । २. देखो न्याय कुमुदचन्द्र के प्र० भागकी प्रस्तावना पृ० ८०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy