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________________ ३२० जैन न्याय है-वस्तुमें वर्तमान शेष धर्मों के प्रति उसकी दृष्टि उदासीन है तो उसका वाक्य नयवाक्य कहा जाता है। यथार्थमें तो नयके लक्षणके अनुसार जितना भी वचनव्यवहार है वह सब नय है। इसीसे सिद्धसेन दिवाकरने नयोंके भेदोंकी संख्या बतलाते हुए कहा है कि 'जितने वचनके मार्ग हैं उतने हो नयवाद है। आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन ये दोनों हो एक तरहसे स्याद्वादके पिता और पोषक तथा रक्षक हैं । इन दोनोंने ही अपने आप्तमीमांसा तथा सन्मति तर्कमें नय सप्तभंगोका ही कथन किया है। उनके उत्तराधिकारी और जैनन्यायके प्रस्थापक अकलंकदेवने ही सर्वप्रथम प्रमाणसप्तभंगीका स्पष्ट कथन किया है। अपने तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० २५२ ) में वस्तुको अनेक धर्मात्मक सिद्ध करनेके पश्चात् अकलंकदेव कहते हैं कि- उस अनेक धर्मात्मक वस्तुका बोध करानेके लिए प्रवर्तमान शब्दको प्रवृत्ति दो रूपसे होती है क्रमसे अथवा यौगपद्यसे । तीसरा वचनमार्ग नहीं है। जब वस्तुमें वर्तमान अस्तित्वादि धर्मोकी काल आदिके द्वारा भेदविवक्षा होती है तब एक शब्दमें अनेक अर्थों का ज्ञान करानेको शक्तिका अभाव होनेसे क्रमसे कथन होता है। और जब उन्हीं धर्मोमें काल आदिके द्वारा अभेदविवक्षा होती है तब एक शब्दसे भी एक धर्मका बोध करानेकी मुख्यतासे तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोंका अखण्डरूपसे युगपत् कथन हो जाता है। जब युगपत् कथन होता है तब उसे सकलादेश होनेसे प्रमाण कहते हैं ; क्योंकि सकलादेश प्रमाणाधीन है ऐसा वचन है। और जब क्रमसे कथन होता है तो विकलादेश होनेसे उसे नय कहते हैं । क्योंकि विकलादेश नयाधीन है ऐसा वचन है । सकलादेश और विकलादेश दोनोंमें सप्तभंगी होती है। प्रथमको प्रमाणसप्तभंगी कहते हैं और दूसरेको नयसप्तभंगी कहते हैं। अब प्रश्न यह होता है कि प्रमाणसप्तभंगो और नयसप्तभंगीके प्रयोगमें वक्ताको विवक्षाके अतिरिक्त भी क्या कोई मौलिक भेद होता है। इस प्रश्नके समाधानके लिए दोनों प्रकारकी सप्तभंगोके उदाहरणके रूपमें दिये गये वाक्योंपर दृष्टि डालना आवश्यक है अकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक ( पृ० २५३ तथा २६० ) में और विद्यानन्द तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक ( पृ० १३८ ) में दोनों सप्तभंगियोंका पृथक्-पृथक् कथन करते हुए दोनों प्रकारके वाक्योंमें 'स्यादस्त्येव जीवः' यह एक ही उदाहरण देते १. 'जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया ।'-सन्मति ०४७ । २. 'एकानेकविकल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत् । प्रक्रियां भंगिनीमेनां नयनर्यविशारदः ॥२३॥'-प्राप्तमीमांसा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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