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________________ २९० जैन न्याय कहते हैं । द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा द्वादशांगश्रु त अनादि और अनन्त है; क्योंकि जिन जीवोंने इस श्रतको पढ़ा था, अथवा जो जोव वर्तमानमें इस श्रतको पढ़ते है, अथवा जो भविष्य में पढ़ेंगे, उन जीवोंका कभी नाश नहीं होता। अतः जीवद्रव्यके अनादि अनन्त होनेसे, उसकी पर्यायरूप श्रत भी उससे अभिन्न होने के कारण अनादि अनन्त है । और पर्यायाथिकनयको अपेक्षा श्रत सादि और सान्त है; क्योंकि श्र तज्ञानी जीवोंका उपयोग निरन्तर परिवर्तनशील है। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षा श्रत सादि, अनादि और सान्त अनन्त होता है । जैसे कोई चौदहपूर्वका धारी साधु मरकर स्वर्ग चला गया। वहां उसे पहले भवमें पठित श्रु तका स्मरण नहीं रहता। इसी भवमें भी किसी-किसीके मिथ्यात्वमें चले जानेपर श्रुतका विनाश हो जाता है । अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर श्रुतका विनाश हो जाता है। क्षेत्रकी अपेक्षा भरत और ऐरावत क्षेत्रमें सम्यक् श्रुत सादि और सान्त होता है; क्योंकि इन क्षेत्रोंमें प्रथमतीर्थकरके समयमें श्रुतका आविर्भाव होता है, अतः वह सादि है, और अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थका अन्त होनेपर वह नष्ट हो जाता है अतः सान्त है। कालकी अपेक्षा भरत और ऐरावतमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके तीसरे कालमें पहले-पहल प्रकट होनेके कारण सादि है। तथा उपिणोके चतुर्थकालके आदिमें और अवसर्पिणीके पंचमकालके अन्तमें अवश्य नष्ट हो जानेसे सान्त है। भावकी अपेक्षा-गुरु और श्रुतके द्वारा प्रज्ञापनीय पदार्थोंको लेकर श्रुत सादि और सान्त है; क्योंकि व्याख्यान करते समय गुरुका थु त परिणाम ध्वनि, तथा तालु आदिका व्यापार वगैरह अनित्य होते हैं। तथा नाना सम्यग्दृष्टि जीवोंकी अपेक्षा श्रुतज्ञान सदा रहता है, कभी उसका विच्छे नहीं होता। पांच महाविदेह क्षेत्रोंमें और उन्हीं विदेहोंमें वर्तमान कालमें श्रु तज्ञान सदा रहता है। उतने क्षयोपशमका सर्वत्र सर्वदा सद्भाव पाया जाता है। अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षा श्रुतंज्ञान अनादि और अनन्त है। जिसमें सदृश पाठोंका बाहुल्य हो उसे गमिकश्रु त कहते हैं जैसे दृष्टिवाद । और जिसमें असदृश पाठका बाहुल्य हो उसे अगमिकश्रु त कहते हैं, जैसे कालिक श्रु त। गौतम आदि गणधरोंके द्वारा रचित द्वादशांगरूप श्रुतको अंगप्रविष्ट कहते हैं । और भद्रबाहु वगैरह स्थविरोंके द्वारा रचित श्रुतको अनंगप्रविष्ट अंगबाह्य कहते हैं। इस प्रकार श्रुतके चौदह भेद श्वेताम्बर साहित्यमें बतलाये हैं। १. विशे० भा०, गा० ५४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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