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________________ परोक्षप्रमाण पहला पक्ष तो ठीक नहीं है; क्योंकि संस्कृत और प्राकृतके जाननेवालोंको 'गावी' आदि शब्दोंसे भी स्पष्ट अर्थकी प्रतीति होती है, यदि गावी आदि अपशब्द है तो क्यों ? स्वरूपसे ही अथवा व्याकरणसे निष्पन्न न होनेके कारण वे अपशब्द हैं ? यदि स्वरूपसे ही अपशब्द है तो गोशब्द भी अपशब्द कहा जायेगा क्योंकि वह भी स्वरूपवाला है। यदि व्याकरणसे अनिष्पन्न होनेके कारण गावी आदि शब्द अपशब्द हैं तो वे संस्कृत व्याकरणसे निष्पन्न (सिद्ध) नहीं हैं, अथवा प्राकृत व्याकरणसे सिद्ध नहीं हैं ? दूसरा पक्ष तो ठीक नहीं है ? क्योंकि प्राकृत शब्द प्राकृतभाषाके व्याकरणसे सिद्ध हैं । यदि संस्कृत व्याकरणसे वे अनिष्पन्न हैं तो स्वरूप मात्रसे अनिष्पन्न हैं अथवा अर्थविशेषमें अनिष्पन्न हैं। स्वरूपमात्रसे अनिष्पन्न तो नहीं हैं क्योंकि जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्र [ ११२।११४ ] के अनुसार 'गावो' शब्द निष्पन्न है। यदि गोत्वरूप अर्थविशेषमें निष्पन्न न होने के कारण 'गावी' शब्दको अपशब्द कहते हैं तो भी ठीक नहीं है; क्योंकि संस्कृत व्याकरण 'गावी' शब्दको गोत्वरूप अर्थमें निष्पन्न नहीं करता। प्राकृत व्याकरण ही गावी शब्दको गोत्वरूप अर्थका वाचक बतलाता है। फिर भी यदि इसीलिए गावी शब्दको अपशब्द कहते है तो गोशब्द भी अपशब्द कहा जायेगा क्योंकि प्राकृत व्याकरणसे 'गो' शब्द अनिष्पन्न है। अतः जब संस्कृत व्याकरणसे सिद्ध गोशब्द और प्राकृत व्याकरणसे सिद्ध 'गावी' शब्द गोत्वरूप अर्थके वाचक हैं तो यह नियम कैसे किया जा सकता है कि गोशब्द ही गोत्वका वाचक है और गावी शब्द गोत्वका वाचक नहीं है ? जैसे वृक्ष, पादप, तरु ये शब्द पर्यायवाची हैं वैसे ही गौ और गावी शब्द भी पर्यायवाची है। श्रुत प्रमाण __यद्यपि 'श्रुत' शब्द संस्कृतको 'श्रु' धातुसे बना है जिसका अर्थ 'सुनना' है। किन्तु जैन दर्शन में यह श्रुत शब्द ज्ञानविशेषमें रूढ़ है। अर्थात् एक ज्ञानविशेषका नाम श्रुतज्ञान है। वह श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। अर्थात् पहले मतिज्ञान होता है उसके पश्चात् श्रुतज्ञान होता है। इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञानका कारण है। ये दोनों ज्ञान सभी प्राणियोंको होते हैं । शंका-सुनकरके जो ज्ञान होता है वही श्रुतज्ञान क्यों नहीं है ? १. 'श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादिनोऽपि रूढ़िवशात् कस्मिंश्चिज्ज्ञानविशेषे वर्तते ............कः पुनरसौ शानविशेष इति । अत आह-श्रुतं मतिपूर्वमिति । सर्वार्थसि० १-२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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