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________________ जैन न्याय न्यायविद्या है। उसके पृथक् प्रस्थान संशय आदि पदार्थ हैं । यदि उन संशय आदिका कथन न किया जाये तो यह केवल अध्यात्मविद्या मात्र हो जाये, जैसे कि उपनिषद् । इसका आशय यह है कि यदि आन्वीक्षिकीमें न्यायशास्त्र प्रतिपादित संशय, छल, जाति आदिका प्रयोग किया जाता है तो वह न्यायविद्या है अन्यथा तो अध्यात्मविद्या है। इस तरह आन्वीक्षिकीका विषय आत्मविद्या भी है और हेतूवाद भी है। इनमें से आत्मविद्या रूप आन्वीक्षिकीका विकास दर्शन कहलाया, जिसे अँगरेजीमें फिलॉसोफ़ी कहते हैं। और हेतुविद्या रूप आन्वीक्षिकीका विकास न्याय कहलाया जिसे अंगरेजीमें लॉजिक कहते हैं। वात्स्यायन भाष्यमें आन्वीक्षिकीका अर्थ न्यायविद्या करते हुए लिखा है'प्रत्यक्ष और आगमके अनुकूल अनुमानको अन्वीक्षा कहते हैं। अतः प्रत्यक्ष और आगमसे देखे हुए वस्तुतत्त्वके पर्यालोचन या युक्तायुक्तविचारका नाम अन्वीक्षा है और जिसमें वह हो उसे आन्वीक्षिकी कहते हैं।' ___'न्याय' शब्दकी व्युत्पत्ति करते हुए भी शास्त्रकारोंने उसका यही अर्थ किया है। जिसके द्वारा निश्चित और निर्बाध वस्तुतत्त्वका ज्ञान होता है उसे न्याय कहते हैं। ऐसा ज्ञान प्रमाणके द्वारा होता है इसीसे न्यायविषयक ग्रन्थोंका मुख्य प्रतिपाद्य प्रमाण होता है। प्रमाणके ही भेद प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम वगैरह माने गये हैं । किन्तु प्रत्यक्ष और आगमके द्वारा वस्तुतत्त्वको जानकर भी उसकी स्थापना और परीक्षामें हेतुवाद और युक्तिवादका अवलम्बन लेना पड़ता है क्योंकि उसके बिना प्रतिपक्षी दार्शनिकोंके सामने उस तत्त्वकी प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती। इसीसे न्यायको तर्कमार्ग और युक्तिशास्त्र भी कहा है। उसके बिना दर्शनकी गाड़ी आगे नहीं बढ़ती। वह उसका प्रतिष्ठाता और संरक्षक है। सम्भवतया इसी हेतूसे अक्षपादने न्यायशास्त्रको लेकर ही एक दर्शनकी स्थापना की थी जिसे न्यायदर्शन कहते हैं । इस दर्शनने सोलह पदार्थोके तत्त्वज्ञान १. 'कः पुनरयं न्यायः ? प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः। प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं साइ न्वीक्षा । प्रत्यक्षागमाभ्यामोक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या-न्यायशास्त्रम् ।'-वात्स्या० भा० ।१।१।। २. 'नीयते ज्ञायते विवक्षितार्थोऽनेनेति न्याय:'-न्यायकुसुमाञ्जलि । 'नितरामीयन्ते गम्य न्ते गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् , शायन्तेऽर्थाः अनित्यत्वास्तित्वादयोऽनेनेति न्यायः तर्कमार्गः।'-न्यायप्रवेशपञ्जिका पृ० १। निश्चितं च निर्बाधं च वस्तुतत्त्वमीयतेऽनेनेति न्यायः'-न्यायविनिश्चयालंकार, भा० १, पृ० ३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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