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________________ भिक्षुणी-संघ का विकास एवं ह्रास : २०१ करने का निर्देश निश्चय ही उनकी सुविधाओं को ध्यान में रखकर दिया गया था। इस मर्यादित क्षेत्र में भोजन-पान की सुलभता थी तथा यहाँ के रहने वाले लोग भी जैन धर्म के आचार-विचार से परिचित थे । इस सीमा का अतिक्रमण करने पर उन्हें असुविधा हो सकती थी । अतः जैसे-जैसे जैन धर्म का प्रभाव विस्तृत होता गया, भिक्षु-भिक्षुणियों की यात्रा की क्षेत्रीय सीमा का भी विस्तार होता गया। बृहत्कल्पभाष्य' में भिक्षु-भिक्षुणियों को २५३ देशों में यात्रा करने की अनुमति दी गयी है। ये देश आर्य-क्षेत्र माने जाते थे, जिनमें मगध, अंग, बंग, कलिंग, काशी कोशल, कुरु, पांचाल, (कॉम्पिल्य) सौर्य, जांगल (अहिच्छत्र), सौराष्ट्र, विदेह, वत्स (कौशाम्बी), संडिब्भ (नन्दिपुर), वच्छ (वैराट), मलय (भद्दिलपुर), अच्छ (वरणा), दशार्ण, चेदि, सिन्धु-सौवीर, भृग (पावा), कुणाल (श्रावस्ती), कोटिवर्ष (लाढ़) और केकय-अर्ध हैं। स्पष्ट है कि भाष्य के रचना-काल तक जैन धर्म का प्रसार विस्तृत क्षेत्र में हो चुका था। अब यह सीमा बढ़कर पश्चिम में सौराष्ट्र से लेकर, पूर्व में लाढ़ (बंगाल-असम) तक, उत्तर में विदेह (नेपाल की सीमा) से लेकर दक्षिण . में उड़ीसा तक पहुँच गयी थी। अभिलेखों से भी उपयुक्त क्षेत्रों में जैन धर्म के प्रसार की पुष्टि होती है। द्वितीय एवं प्रथम शती ईस्वी पूर्व में मथुरा जैन धर्म के एक प्रमख केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। वहाँ से प्राप्त अभिलेखों में अनेक जैन भिक्षणियों को दान देते हए दिखाया गया है। अधिकांश अभिलेख प्रथम शताब्दी ईस्वी अर्थात् कनिष्क के काल के हैं। स्पष्ट है कि इस समय तक उत्तरी भारत में जैन धर्म का प्रभाव फैल चुका था। मगध जैन धर्म का प्रसिद्ध स्थल था । अनुश्रुति के अनुसार मगध नरेश बिम्बिसार तथा उसके उत्तराधिकारी अजातशत्रु के साथ महावीर के घनिष्ठ सम्बन्ध थे । नन्द राजा भी जैन धर्मावलम्बी प्रतीत होते हैं। प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के हाथीगम्फा अभिलेख से यह पता चलता है कि कलिंग (उड़ीसा) की एक जिन-प्रतिमा को नन्दराजा कलिंग से ले गया था । १. बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, ३२६३. 2. List of Brahmi Inscriptions, 16, 18, 24, 32, 39,:48,50, 70,75,86, 99,117,121.etc... 3. Epigraphia Indica, Vol. 20, P. 72. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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