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________________ १९२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ चीकर्म (कुशल-समाचार पूछना) ज्येष्ठता के अनुसार हो, लिंग के अनुसार नहीं।' गौतमी द्वारा उठाया गया यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न था जिसका अत्यन्त दूरगामी प्रभाव पड़ता । लेकिन बुद्ध ने अपनी क्षीरदायिका मौंसी के इस तर्क को स्वीकार नहीं किया तथा कठोरतापूर्वक यह नियम बनाया कि अभिवादन-वन्दना आदि भिक्षणियों को ही करना चाहिए। उपसम्पदा के उपरान्त भिक्षुणियों को तीन निश्रय तथा आठ अकरणीय धर्म बतलाए जाते थे, भिक्षुओं के लिए चार निश्रय तथा चार अकरणीय थे। ये आठ अकरणीय धर्म पाराजिक प्रायश्चित्त के ही दुसरे नाम थे। पाराजिक बौद्ध संघ का सबसे कठोर दण्ड था। पाराजिक दोष सिद्ध हो जाने पर भिक्षुणी संघ से सर्वदा के लिए निकाल दी जाती थी। वह 'अभिक्खुनी" कहलाती थी। उसकी तुलना सिर कटे हुए व्यक्ति से की गई थी। स्पष्ट है, भिक्षुणियों को अकरणीय धर्म के माध्यम से अधिक कठोर प्रतिबन्ध में रखने की कोशिश की गई। कुछ परिस्थितियों में भिक्षुणियों को भिक्षु-संघ के साथ रहना आवश्यक माना गया था । अष्टगुरुधर्म नियम के अनुसार भिक्षुणियों को भिक्षु-संघ के साथ ही वर्षावास करने का विधान था। भिक्षुणियों को अकेले यात्रा आदि करना निषिद्ध था । भिक्षुओं का चतुर्थ निश्रय वृक्ष के नीचे निवास करना था, परन्तु भिक्षुणी को वृक्ष के नीचे रहने का निषेध किया गया था । इसी प्रकार उन्हें अरण्य (जंगल) में ठहरने की अनुमति नहीं थी।" इसके विपरीत भिक्षु अकेला यात्रा भी कर सकता था तथा अरण्य में भी अकेला रह सकता था। उपर्युक्त नियम नारी-प्रकृति को ही ध्यान में रखकर बनाये गये थे तथा उसमें भिक्षुणी की चारित्रिक सुरक्षा का प्रश्न महत्त्वपूर्ण था। भिक्षुणियों को अरण्यवास आदि की आज्ञा देने पर उनके शील-अपहरण आदि का भय था । भिक्षुओं के साथ ऐसी कोई बात नहीं थी, अतः उन्हें अरण्यवास करने से निषेध नहीं किया गया था, बल्कि उन्हें इस सम्बन्ध १. चुल्लवग्ग, पृ० ३७८. २. द्रष्टव्य-इसी ग्रन्थ का प्रथम अध्याय । ३. "सीसच्छिन्नो अभब्बोतेन सरीरबन्धनेन जीवितुम" -पाचित्तिय पालि, पृ० २८७. ४. द्रष्टव्य-इसी ग्रन्थ का प्रथम अध्याय । ५. चुल्लवग्ग, पृ० ३९९; भिक्षुणी विनय ६ २८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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