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________________ संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १६९ दुब्भासित बुद्ध, धर्म, संघ या किसी के प्रति कटु या बुरे वचनों का प्रयोग करने पर इस अपराध का भागी बनना पड़ता था। इस दण्ड को मुख्य शिक्षा यह थी कि भिक्षुणियों को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए। महासांघिकों के भिक्षुणी-विनय में थुल्लच्चय तथा दुब्भासित प्रायश्चित्त का उल्लेख नहीं प्राप्त होता। उपर्युक्त जिन विभिन्न दण्डों (प्रायश्चित्तों) का वर्णन किया गया है, अपराधी भिक्षुणी को उसके अपराध की गम्भीरता के अनुसार दण्ड दिया जाता था। दोनों संघों में एक ही अपराध करने पर उसकी गम्भीरता के अनुसार विभिन्न प्रकार के दण्ड हो सकते थे। कुछ मुख्य अपराधों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है। मैथुन सम्बन्धी अपराध जैन भिक्षुणी-(क) जो भिक्षुणी अपने गुप्तेन्द्रिय को तेल, घृत या मक्खन से मले, उसके अन्दर उँगली प्रवेश करे, शीतल या अचित्त गर्म जल से धोवे तो उसे मासिक अनुद्धातिक प्रायश्चित्त' ।। (ख) हस्तकर्म करने वाली भिक्षुणियों को अनुद्धातिक प्रायश्चित्त । (ग) मल-मूत्र का परित्याग करते समय यदि भिक्षुणी के अंगों को 'पशु-पक्षी स्पर्श कर ले और उस स्पर्श से यदि वह आनन्दित हो, तो उसे अनुद्धातिक मासिक प्रायश्चित्त । (घ) बीमारी अथवा दुर्बलता के कारण किसी पुरुष के द्वारा सहायता करने पर यदि वह पुरुष-स्पर्श पाकर आनन्दित हो, तो उसे अनुद्धातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त । १. 'दुब्भासितं दुराभलु ति दुळं आभट्ठ भासितं लपितं ति दुराभट्ठम् । यं दुराभट्टं तं दुब्भासितम्"-समन्तपासादिका, भाग तृतीय, पृ० १४५९. २. निशीथ सूत्र, १/१-९. ३. बृहत्कल्पसूत्र, ४/१. ४. वही, ५/१३-१४. ५. वही, ५/२,५/४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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