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________________ १५२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ ... बोधिघर (बोधिगृह), सम्मज्जनी-अट्टक (स्नान-गृह), दारु-अट्टक (लकड़ी बनाने का स्थान), पानीयमाल (छज्जा), वच्छकुटी (शौचालय) तथा द्वारकोट्टक (द्वारकोष्ठक)। . इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में भिक्षुणियों के लिए भी परिवास दण्ड का विधान रहा होगा जैसाकि अशोक के अभिलेखों से स्पष्ट होता है। परन्तु कालान्तर में भिक्षुणियों को शील-सूरक्षार्थ संघ से बाहर अनावासस्थान में भेजना निषिद्ध हो गया। थुल्लच्चय--यह लहुकापत्ति (लघु-आपत्ति) दण्डों में सबसे कठोर दण्ड था तथा अपराध की गुस्ता के दृष्टिकोण से इसका क्रम पाराजिक तथा संघादिसेस के बाद ही पड़ता था। स्थल (थुल्ल) शब्द का अर्थ ही गम्भीर होता है। इस वर्गीकरण में इसके समान अन्य कोई गम्भीर अपराध नहीं था।' यद्यपि भिक्खु तथा भिक्खुनी पातिमोक्ख में इस दण्ड का उल्लेख नहीं है, परन्तु जो आत्महत्या का प्रयत्न करता था, संघ की शान्ति एवं मर्यादा को भंग करने की कोशिश करता था, कोई ऐसो वस्तु चुराता था जिसका मूल्य एक मासक से ज्यादा परन्तु ५ मासक से कम हो, तो वह थुल्लच्चय का अपराधी माना जाता था। इसी प्रकार भिक्षणी यदि अणिचोल (ऋत् सम्बन्धी) नामक वस्त्र को इस प्रकार बाँधती थी जिससे उनमें कामासक्ति की भावना उत्पन्न हो, तो उन्हें थुल्लच्चय का दण्ड दिया जाता था। यद्यपि यह एक गम्भीर अपराध था, परन्तु किसी योग्य भिक्षु-भिक्षुणी के सम्मुख अपने अपराधों का प्रायश्चित्त करने से इसका निराकरण सम्भव था। · पाचित्तिय--यह संस्कृत शब्द प्रायश्चित्त का ही पाली रूपान्तरण है । अपने अपराधों को संघ या पुग्गल (व्यक्ति) के सम्मुख स्वीकार करने पर इसका निराकरण हो जाता था तथापि ऐसा आचरण धर्म से पतित होने वाला तया आर्यमार्ग का अतिक्रमण करने वाला माना जाता था। १. 'एकस्स मूले यो देसेति, यो च तं पाटिगण्हति अच्चयोतेन समो नत्थि' -परिवार पालि, पृ० ३६३. २. पाराजिक पालि, १० ६६. ३. भिक्षुणी विनय, $२६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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