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________________ १३६ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ सामणेरी (श्रामणेरी) यह बौद्ध भिक्षुणी-संघ की सद्यः प्रवजित नारी होती थी। भिक्षुणीपद प्राप्त करने के पहले नारी को श्रामणेरी तथा शिक्षमाणा के रूप में नियमों को सीखना पड़ता था । श्रमणेरी के लिए अलग से नियमों का उल्लेख नहीं मिलता। अतः यह अनुमान करना अनुचित नहीं है कि भिक्षुसंघ के श्रामणेर के लिए जो नियम थे, वे ही नियम श्रामणेरी के लिए भी रहे होंगे। सामणेर (श्रामणेर) बौद्ध संघ में प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति को सर्वप्रथम प्रव्रज्या ग्रहण कराई जाती थी। प्रवेशार्थी को शिर के बाल कटवाना तथा कषाय वस्त्र धारण करना पड़ता था। वह बुद्ध, धर्म तथा संघ में शरण ग्रहण करता था। श्रामणेर को दस शिक्षापद नियमों (दससिक्खापद) के पालन का व्रत लेना पड़ता था। ये दस बातें निम्न थीं। (१) प्राण-हिंसा से विरत रहना, (२) चोरी करने से विरत रहना, (३) अब्रह्मचर्य से विरत रहना, (४) झूठ बोलने से विरत रहना, (५) सुरा एवं मद्य के सेवन से विरत रहना, (६) विकाल (मध्याह्न-बाद) भोजन करने से विरत रहना, (७) नृत्य, गीत, वाद्य आदि से विरत रहना, (८) माला तथा आभूषणों को धारण करने से विरत रहना, (९) ऊँची शय्या के प्रयोग से विरत रहना, (१०) सोना, चाँदी आदि के ग्रहण करने से विरत रहना। इसे “दशशीलम्" भी कहा जाता था। महवंस में रानी अनुला द्वारा इन दशशीलों को स्वीकार करने का उल्लेख है। प्रव्रज्या प्राप्त करने के पश्चात् श्रामणेर को किसी योग्य भिक्षु के निश्रय में तब तक रहने का विधान था जब तक कि उसको उपसम्पदा प्राप्त नहीं हो जाती । श्रामणेर को पातिमोक्ख की वाचना वाले उपोसथ में तथा अन्य संघ-कर्मों में उपस्थित होने का निषेध था । १. महावग्ग, पृ० ८७. २. महावंस, १८/१०. ३. महावग्ग, पृ० १८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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