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________________ भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम : १०९ खोलने के रहस्य को या तो प्रतिहारी जानती थी या वह जो सिकड़ी बाँधती थी-अन्य कोई नहीं। सभी सूत्रों में पारंगत (सम्यगधिगतसूत्रार्था), उच्चकुल में उत्पन्न (विशुद्धकुलोत्पन्न), भयहीन (अभीरू), गठीले बदन वाली (वायामियसरीर), बलिष्ठ प्रतिहारी उपयुक्त मानी जाती थी । वह हाथ में मजबूत डण्डा लेकर द्वार के पास बैठती थी, जो कोई भी उसमें प्रवेश करने का प्रयत्न करता था, प्रतिहारी भिक्षणी उसकी पूरी जाँच करती थी । वह आगन्तुक के सिर, गाल, छाती का भली-प्रकार स्पर्श कर पता लगाती थी कि आने वाला व्यक्ति स्त्री है या पुरुष । फिर वह उसका नाम पूछती थी। इन सारी क्रियाओं के बाद जब वह सन्तुष्ट हो जाती थी, तभी प्रतिहारी आगन्तुक को उपाश्रय के अन्दर प्रवेश की आज्ञा देती थी। इस नियम से ऐसा प्रतीत होता है कि दुराचारी पुरुष स्त्री-वेष धारण कर भिक्षुणियों के उपाश्रय में पहुंच जाते थे, इसके निराकरण हेतु ही यह नियम बनाया गया था। आगन्तुक को उपाश्रय के अन्दर देर तक रुकने तथा व्यर्थ का वार्तालाप करने की आज्ञा नहीं थी। फिर भी यदि इन सारी सतर्कताओं के बावजूद कोई दुराचारी व्यक्ति उसमें प्रवेश पा जाता था, तो सभी भिक्षुणियाँ मिलकर भयंकर कोलाहल करती थीं तथा डण्डा लेकर पहले वृद्धा भिक्षुणी (स्थविरा) फिर तरुणी भिक्षणी, फिर वृद्धा- इस क्रम से अपने शील की रक्षा का प्रयत्न करती थीं । अनावृत द्वार वाले उपाश्रय में भिक्षुणियों को जोर-जोर से पढ़ने के लिए कहा गया था तथा दुराचारी व्यक्तियों के प्रवेश के सभी प्रयत्नों को विफल करने का निर्देश दिया गया था। इसके अतिरिक्त भिक्षु को ऐसे उपाश्रयों या शून्यागारों में बाहर से साध्वी की रक्षा करने को कहा गया था (बहिरक्खियाउ वसहेंहि) २ तरुणी साध्वी की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता था। उपाश्रय में पहले स्थविरा (वृद्धा) भिक्षुणी, इसके पश्चात् तरुणी भिक्षुणी, उसके पश्चात् फिर वृद्धा भिक्षुणी और उसके पश्चात् पुनः तरुणी भिक्षुणी-इस क्रम से शयन करने का विधान था।३ शील के नष्ट होने की सम्भावना तभी रहती थी जब साध्वी के साथ कोई बलात्कारपूर्वक सम्भोग कर ले। निशीथचूणि में सम्भोग के कारणों में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग आदि का वर्णन किया गया है । १. बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, २३२३. २. वही, भाग तृतीय, २३२४. ३. गच्छाचार, १२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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