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________________ पंचम अध्याय के शील सम्बन्धी नियम नारियों के प्रव्रज्या सम्बन्धी कारणों का अनुशीलन करने से यह स्पष्ट होता है कि नारियाँ स्वेच्छा से अथवा परिस्थितियों से बाध्य होकर जैन या बौद्ध संघ में प्रवेश लेती थीं। जैन एवं बौद्ध भिक्षुणी-संघ में भिक्षुणियों की बढ़ती हुई संख्या ने जहाँ दोनों धर्मों के प्रभाव को विस्तृत किया, वहीं भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के प्रश्न को भी महत्त्वपूर्ण बना दिया । जैन एवं बौद्ध दोनों संघों के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न भिक्षुणियों के शील की सुरक्षा का था। एक स्त्री जब भिक्षणी बन जाती थी तो उसकी सुरक्षा का पूरा का पूरा उत्तरदायित्व संघ पर आता था। दोनों धर्मों में हमें इस सम्बन्ध में नियमों की एक विस्तृत रूप-रेखा प्राप्त होती है। जैन भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम । प्राचीन जैन आगम ग्रन्थों में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के प्रश्न के. बारे में उतनी चिन्ता नहीं व्यक्त की गई है, जितनी की परवर्ती ग्रन्थों में। यह बात बृहत्कल्पभाष्य, निशीथ विशेष चूर्णि, आवश्यक नियुक्ति, गच्छा-- चार आदि परवर्ती ग्रन्थों में उपलब्ध सामग्री के विश्लेषण के आधार पर कही जा सकती है। उपाश्रय में भिक्षणियों को कभी अकेला नहीं छोड़ा जाता था। गच्छाचार' के अनुसार गच्छ में रहने वाली साध्वी रात्रि में दो कदम भी बाहर नहीं जा सकती थी। उन्हें अकेले आहार, गोचरी या शौच के लिए. भी जाना निषिद्ध था। वस्त्र के सम्बन्ध में अत्यन्त सतर्कता रखी जाती थी। बृहत्कल्पभाष्य तथा ओघनियुक्ति में भिक्षुणियों द्वारा धारण किये जाने वाले ग्यारह वस्त्रों का उल्लेख है। यात्रा के समय उन्हें सभी वस्त्रों को धारण करने का निर्देश दिया गया था। रूपवती साध्वियों को खुज्जकरणी नामक वस्त्र धारण करने की सलाह दी गयी थी, ताकि वे कुरूप १. गच्छाचार, १०८. २. बृहत्कल्पसूत्र, ५/१६-१७. ३. बृहत्कल्पभाष्य, भाग चतुर्थ, ४११९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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